इसमें
सामूहिक बलात्कार की शिकार बनकर मानसिक संतुलन खो बैठी स्त्रियों की सच्चाई,
अपने नवजात की जान बचाने के लिए निर्वसन होने वाली स्त्री की सच्चाई
या एरिजोना मार्केट में देह-व्यापार में डूबती उतरती स्त्रियों के सच या उनके
अनकहे आख्यानों को सुनाने की कोशिश की गई है । इसमें इन्हीं परिचिताओं की आपबीती
को अभिव्यक्ति दी गई है ।
इस
यात्रा डायरी में बड़ी ही सूक्ष्मता और व्यापकता के साथ युद्ध,
विस्थापन, पुनर्वास व सेक्स जैसे हर तरह के
परिदृश्यों को परत-दर-परत उजागर किया गया है । जब-जब इस डायरी को पढ़ने की कोशिश
करते हैं मस्तिष्क संवेदना शून्य हो जाता है । ये अन्दर से बाहर और देह से देश तक
की ऐसी यात्राएँ है, जहाँ हत्या है, क्रूरता
है, बलात्कार से पीड़ित स्त्रियाँ है, सिहरन
है, चीखते-चिल्लाते बच्चे है । यह रक्तरंजित युद्ध के इतिहास
का सच्चा बयान है । इसके इतिहास को देखे तो इस सर्ब क्रोआती बोस्नियाई संघर्ष की
भूमिका 1939-1945 के बीच द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान ही रच दी गई थी । जब संयुक्त
राज्य अमेरिका और सोवियत रूस के बीच शीतयुद्ध चल रहा था और ये क्रमशः पूँजीवादी और
साम्यवादी देश के दो खेमों में बंट गये थे जिससे दोनों में आपसी टकराव का खतरा
हमेशा बना रहा और बर्लिन संकट, कोरिया युद्ध और सोवियत रूस
द्वारा आण्विक परीक्षण, हिन्द-चीन संकट, क्यूबा मिसाईल संकट ये सब इसी शीतयुद्ध का परिणाम थे और इसी का परिणाम था
सर्बियाई-क्रोएशियाई युद्ध जिसके परिणामों का चित्रण इस पुस्तक में किया गया है । तरसेम
गुजराल इस यात्रा डायरी के सम्बन्ध में लिखती है कि “रक्तरंजित इस डायरी में जख्मी
चिड़ियों के टूटे पंख हैं, तपती रेत पर तड़पती सुनहरी जिल्द
वाली मछलियाँ हैं, कांच के मर्तबान में कैद तितलियाँ हैं । युगास्लाविया
के विखंडन का इतना सच्चा बयान हिंदी में यह पहला है ।”[1]
किताब की शुरुआत एयरपोर्ट और हवाई यात्रा
से होती है । हैदराबाद से दिल्ली और दिल्ली से जाग्रेब । फिर एक नया देश,
वहाँ के लोग, खानपान को लेकर होने वाली
परेशानी, ठंडा मौसम व बचपन की कुछ झलकियाँ व साथ ही आत्मीय
जनों को लिखी जाने वाली चिट्टियाँ । लेकिन फिर शुरू होता है जाग्रेब और क्रोएशिया
का इतिहास, युद्ध का इतिहास । जिसमें है खून से सनी औरतें और
बच्चे, क्षत-विक्षत जिस्म, गर्भवती
होती स्त्रियाँ, जानवरों की तरह खरीदी और बेची जा रही औरतें,
जंगलों की तरफ भागते पुरुष व भेड़ियों की तरह लपकते सर्बियाई सैनिक ।
ऐसे-ऐसे चित्रण जिनको पढ़कर मस्तिष्क सुन्न हो जाता है । लगता है जैसे सब कुछ अपनी
ही आँखों के आगे घट रहा है और हम प्रत्यक्षदर्शी होकर मात्र देख रहे हैं । लगता है
बस अब और नहीं । बहुत हो गया । इससे ज्यादा नहीं देखा सुना जा सकता । लेकिन ये
सोचने मात्र से यह क्रम रूकता थोड़ी ना है । सेर्गेई,
याद्राका, एडिना, स्त्रोकोविच, फिक्रेत, बोल्कोवेच, दुष्का,
नीसा, अजर ब्लाजेविक,
हसीबा, मेलिसा जैसी तमाम औरतें...जो पात्र अलग-अलग है लेकिन
दुःख, दर्द व पीड़ाएँ सभी की एक है । जो एक-एक करके अपनी
कहानियाँ सुनाती जाती है, हर औरत के साथ रूह कंपा देने वाली
कहानियाँ जुड़ी हुई है, जिसमें पाठक अनुपस्थित होकर भी हर जगह उपस्थित लगता है ।
सर्बिया ने युद्ध में बोस्निया, हर्जेगोविना, क्रोएशिया के खिलाफ नागरिक और सैन्य कैदियों के 480 कैम्प बनाए थे ।
इन्हीं कैम्पों में स्त्रियों पर अमानुषिक अत्याचार किये गये थे । ये सभी सर्बियाई
कैम्प रैप शिविरों में बदल गये थे । इनमें स्त्रियों को शारीरिक और मानसिक यातनाएँ
देकर, बलात्कार करके योनियों तक सीमित करके रख दिया गया था ।
इतिहास के उन विद्रूप पन्नों को एक-एक करके इस किताब में खोलकर रखा गया है ।
1992
से 1995 तक चले इस युद्ध में सयुंक्त यूगोस्लाविया से विखंडित हुए छोटे-छोटे देशों
ने बहुत कुछ खोया । आम लोगों की शांति भंग हुई । नागरिक अधिकारों का हनन हुआ,
विस्थापन से लाखों लोग शरणार्थी बने । लेकिन इस दौर में सबसे अधिक
जघन्य हिंसा का शिकार बनी स्त्रियाँ । युद्धों के इतिहास में स्त्रियों के
अस्तित्व को किस प्रकार कुचला गया था उसी का दर्दनाक ब्यौरा इस पुस्तक में
प्रस्तुत किया गया है । एनिसा जब कहती है कि “मेरे शरीर पर कोई वस्त्र नहीं ।
वह(माँ) मुझे देखकर दहाड़े मारकर रोने लगी । मैं निर्वस्त्र नि:सहाय, घायल और अपमानित माँ ने कपड़े पहनाये, सहारा दिया, उन्होंने योनि को काट-कूट दिया था, माँ गर्म पानी
से मुझे धोती जाती और कहती जाती, ‘जास्तो सी रोदेन काओ जेना
! दा उमरिएति दा उमरिएति’ (तू लड़की होकर क्यों पैदा हुई ! मर जा तू, मर जा )”[2]
“मैं गिनती ही भूल गयी कि उन्होंने कितनी बार
मुझसे बलात्कार किया । होटल के सारे कमरों में ताले लगे रहते,
वे खिड़की के रास्ते हमें रोटी फैंकते, जिसे
हमें दाँतों से पकड़ना पड़ता, क्योंकि हमारे हाथ तो पीछे बंधे
रहते । सिर्फ बलात्कार के वक्त ही हमारे हाथ खोले जाते । हमें समय का ज्ञान भूल
गया । हमारी देह को सिगरेट से जलाया जाता, जीभ पर चाकू चलाकर
मांस का टुकड़ा काट लिया जाता । हममें से अधिकांश औरतें न बोलती थीं, न रोती थीं । कुछ ने अपनी जान ले ली और कई तो दर्द और भूख से मर गयी । कुछ
औरतों का सात से नौ घंटे के बीच नौ-दस बार बलात्कार हुआ ।”[3] ऐसे
घृणित प्रसंग जिसमें से किसको छोड़ा जाए और क्या-क्या लिखा जाएँ? कितनी अमानवीय
यातनाएँ उन स्त्रियों ने सहन की थी । अपमान और हिंसा सहन करते-करते वे खुद से घृणा
करने लगती है। लेकिन फिर भी अपराजित होकर जी रही है ।
बाल्कन
प्रदेश में लेखिका की मुलाकात तरह-तरह की स्त्रियों से होती है जिन्होंने युद्ध के
दौरान शारीरिक और मानसिक अनेक प्रकार के दंश झेले थे । ऐसी ही एक मुलाकात यांद्रका
से होती है । वह अपने साथ हुए अत्याचारों के बारे में बताती है कि “रात को सैनिक
आकर हमारे दरवाजे खटखटाते, हमें बाहर बुलाते ।
एक रात सर्ब सेना के कमांडर एलको मेजविका ने मुझे बुलाया । मैं डर रही थी, फिर भी उसके पीछे-पीछे एक कमरे में, जहाँ छह-सात लोग
बैठे थे, गयी । शब्दों से पर्याप्त अपमानित करने के बाद
मेजविका ने नंगे फर्श पर लेटने को कहा और शरीर के साथ मनमानी की, ऐसा लगातार चार घंटे चलता...।”[4] सर्ब
सैनिक घरों में घुसकर नकदी, आभूषण, महँगी
वस्तुएँ खोजते और उनको जो भी स्त्री पसंद आती उसी को अपनी हवस का शिकार बनाते ।
सुन्दर, कोमल, मासूम लड़कियों को
डरा-धमका कर गहने-नकदी छिनने के बाद अस्मिताविहीन व पहचानविहीन किया जाता । जिसके
कारण आज भी कई स्त्रियाँ ट्रामेटिक डिसऑर्डर से जूझ रही है । इसी का शिकार है
अड़तीस वर्ष की एनिसा जो 1992 में 16 में वर्ष की थी तब उसके साथ यह अत्याचार किया
गया था लेकिन आज भी उसके सामने वे दुर्दिन चलचित्र की भांति चल रहे हैं । वह बताती
है कि आज भी मेरे कोई साथी नहीं है, मित्रहीन हूँ । पुरुष
मेरी दुनिया में हिंसा और घृणित अनुभवों का प्रतीक है । आज भी पुरुषों को देखकर ही
मुझे डर लगता है, घृणा होती है और इस घृणा पर मेरा कोई
नियंत्रण नहीं है ।
इस
युद्ध में भीषण रक्तपात हुआ था और बीस लाख से अधिक लोग शरणार्थी हुए थे । इसमें
सर्बिया का एक ही उद्देश्य था कि यहाँ के नागरिकों को ज्यादा से ज्यादा प्रताड़ित
किया जाएँ जिससे वे ये जमीन और देश छोड़ कर चले जाए और उनका विस्तृत देश का सपना
पूरा हो सके । सामूहिक हत्याएँ की गई, बलात्कार हुए, यातना शिविर बनाए गये और औरतों को एक
वस्तु या साधन के रूप इस्तेमाल किया गया । युद्ध के दौरान सैनिकों का जितना
क्रूरतम और वीभत्स चेहरा हो सकता है, उसे ‘देह ही देश’ में
देखा जा सकता है । इसी क्रूरता का एक उदाहरण दृष्टव्य है :- “जिबा से निर्वस्त्र
होने को कहा जाता, मना करने पर गला रेत देने की धमकी । लगातार
बीस दिनों तक उनका बलात्कार किया जाता रहा – सामूहिक तौर पर । गर्भवती औरतों में
से अधिकांश को मार दिया गया । तनाव, भूख और पिटाई से कई
औरतें यूँ ही बीमार पड़ जातीं, उनकी कोख खाली करवाई जाती,
इसके बाद शुरू होता उनकी कोख पर हमले का सिलसिला, जब तक वे सर्बियाई सैनिकों से गर्भ धारण नहीं कर लेतीं । किसी स्त्री के
गर्भ धारण की खबर पर सर्बियाई सैनिक नाच उठते, कैम्पों में
जश्न का माहौल होता।”[5] हिंसा, मारकाट, घर-घर में बलात्कृत माएँ, बहनें, बेटियाँ ऊपर से सब शांत दिखाई देता है लेकिन
भीतर का इतिहास पीड़ित, लहुलुहान, रक्तरंजित
है ।
इस
पुस्तक में लेखिका ने युद्ध पीड़िताओं से मिलकर बहुत ही शोधपरक आकड़े एकत्रित किये
है । सम्पूर्ण जरूरी आकड़ों के साथ सूक्ष्मता और व्यापकता से युद्ध के दौरान के व
उसके बाद के परिदृश्यों का चित्रण किया गया है । युद्ध के बाद 1995 में स्वयंसेवी
संस्थाओं,
सरकारों और पश्चिमी स्त्रीवादी संगठनों ने गाँव-गाँव जाकर पीड़ितों
के बयान लिए और आँकड़े एकत्रित किए । लेकिन इनकी रपटें परस्पर विरोधी और चौंकानें
वाली थी । बोस्निया सरकार ने जहाँ 50,000 स्त्रियों के
घर्षित होने की रिपोर्ट दी । वही ज्योनिमिर सेप्रोविच ने 30,000
व यूरोपियन यूनियन के जाँच कमिशन ने 20,000 को प्रमाणित माना
वही दूसरी ओर अमेरिकी स्वयंसेवी संस्थाओं का मानना है कि “जहाँ भी युद्ध होते हैं,
वहाँ बलात्कार और और यौन हिंसा के मामले होना भी स्वाभाविक ही है, यह भी कि जब बोस्नियाई और क्रोआती सैनिक सीमा पर चले गये तो पीछे से उनके
घरों की स्त्रियों को सर्ब सैनिकों की टुकड़ियों ने लुभा लिया। युद्धकाल में प्रेम
और यौन के आवेग के फलस्वरूप अधिकांश स्त्रियों ने सर्बों को स्वयं आमंत्रित किया
और यौन सम्बन्ध बनाएँ । इन स्त्रीवादियों ने कई प्रकार के आँकड़े देकर संयुक्त
राष्ट्र को सौंपी रिपोर्ट में इस तरह की प्रायोजित मौलिक कल्पनाएँ की ।”[6] इस
तरह की रिपोर्टों को देखकर कई स्त्रियाँ अपनी आप बीती बताने में निरुत्साहित भी
हुई होंगी । रिपोर्टों को प्रस्तुत करके लेखिका ने संगठनों की सच्चाई को प्रस्तुत
किया है |
बोस्नियाई
परिवारों में महीनों तक माँ-बेटियों के साथ दुराचार किये गये । फिर भी न जाने
कितने ही परिवार है, जिन्होंने अपने ही
पुरूषों से सच को छुपा लिया । स्त्रियाँ अन्दर ही अन्दर यातनाओं के दंश झेलती रही
लेकिन अपनी आपबीती पुरुषों को नहीं बताई क्योंकि बोस्नियाई पुरुष लोग स्त्री की
यौन शुचिता के संदर्भ में पितृसत्तात्मक समाजों की तरह ही कट्टर है । संदेह होने
पर या प्रमाण मिलने पर त्यागने में देर नहीं करते हैं । इसीलिए सामाजिक बहिष्कार,
आजीवन अविवाहित रह जाने और तलाक के भय से हजारों बोस्नियाई स्त्रिओं
ने अपने साथ हुए यौन अपराधों की रिपोर्ट तक दर्ज नहीं कराई । दूसरी तरफ देखा जाए
तो इस युद्ध में यौन हिंसा का शिकार सिर्फ स्त्रियाँ ही नहीं बनी बल्कि पुरूष और
बच्चे भी बने । जिसका रूप तो और भी ज्यादा वीभत्स था । सैनिक शिविरों में कैदियों
को आपस में अप्राकृतिक आचरण करने के लिए मजबूर किया जाता था ।
इस
यात्रा डायरी को लिखते समय लेखिका के मन और मस्तिष्क में कितना विषाद और तनाव रहा
होगा । उन त्रासदियों को अभिव्यक्त करने व शब्द देने के लिए लेखिका ने अपने
संवेदनशील मन पर कितने युद्ध किये होंगे ? इसको
पढ़ना ही एक गहन पीड़ा से गुजरना है तो लिखना तो कितना मुश्किल रहा होगा । इसमें
इतिहासबोध को दृष्टि में रखकर सूक्ष्म से सूक्ष्म विवरणों को यथार्थ रूप में
प्रस्तुत किया गया है जिससे इसमें निहित कड़वे यथार्थ से गुजरना एक मधुर त्रासदी से
गुजरना है । भाषा की दृष्टि से उत्कृष्ट रचना व बीच-बीच में आने वाली शांति निकेतन
की यादें, बांग्ला भाषा का प्रयोग व आत्मीय लोगों को लिखे
गये पत्र इस डायरी की महती विशेषता है ।
संदर्भ:-
1. गरिमा श्रीवास्तव,देह ही देश’(2017),
राजपाल एंड संज, नई दिल्ली,,पृ. फ्लैप पेज से
2. गरिमा श्रीवास्तव,
देह ही देश’(2017),
राजपाल एंड संज, नई दिल्ली, पृ. 67
3. वही, पृ. 107
4. वही,पृ. 138
5. वही, पृ.134
6. वही, पृ. 111
कलम की ताकत.... शानदार लेखन.
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