Wednesday, July 22, 2020

स्त्री की आजादी का दस्तावेज : आजादी मेरा ब्रांड

स्त्री की आजादी का दस्तावेज : आजादी मेरा ब्रांड

                                                        स्वाति चौधरी 


शतरंज चैम्पियन, हरियाणवी छोरी अनुराधा बेनीवाल की यूरोप घुमक्कड़ी के संस्मरणों के आख्यान ‘यायावरी आवारगी’ की पुस्तक श्रृ्ंख्ला में ‘आजादी मेरा ब्रांड’ पहली किताब है, जिसका प्रकाशन राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली से जनवरी 2016 में हुआ । स्त्री की स्वतंत्रता की आवाज को बुलंद करती इस कृति का वास्तविक ब्रांड आजादी है । इसी आजादी की तलाश में यूरोप के 13 देशों में एक लड़की के द्वारा की गयी घुमक्कड़ी की कहानी इसमें है । अकेले, बिना किसी मकसद के, बेपरवाह, बेफिक्र होकर की गई यात्राओं का वृतांत है । एक अकेली बेकाम, बेफिक्र, बेटेम घूमती-फिरती लड़की में अलग ही ताकत होती है, साहस होता है । ऐसा साहस जिसे बाहर निकलने का मौका ही नहीं दिया जाता । इसी साहस के दम पर की गई बेमकसद यात्राओं की अनूठी दास्तान है ‘आजादी मेरा ब्रांड’ ।

इस श्रृ्ंख्ला में यूरोप के तेरह शहर लन्दन, पेरिस, लील, ब्रसल्स, कॉकसाईड, एम्स्टर्डम, बर्लिन, प्राग, ब्रातिस्लावा, बुडापेस्ट, म्युनिक, इंस्ब्रुक, बर्न की एकाकी यात्राओं के वृत्तांत है । इन एकाकी यात्राओं में कहीं पर भी ऊब महसूस नहीं होती है । ज्ञान के बोझ से कहीं पर भी भारीपन नहीं लगता है । बल्कि इसमें तो पाठक भी साथ-साथ यात्रा करने लगता है, इस यात्रा में यह अजनबी, आवारा लड़की कब आपकी दोस्त बन जाती है पता ही नहीं चलता और अन्दर और बाहर दोनों ही तरह की यात्राओं से रूबरू कराती चलती है, इसमें जितनी यात्राएँ बाहर की दुनिया की है, उतनी ही अन्दर की दुनिया की भी है और यह इन्हीं दोनों दुनियाओं को जोड़ती हुई चलती है ।

आरम्भ में ही अनुराधा कहती है कि यात्रा के लिए खुद को ही निकलना पड़ेगा । कोई तुम्हारा हाथ पकड़कर नहीं ले जा सकता । अकेले कैसे जाएँ, घरवाले जाने देंगे, बाहर कितना सेफ है ? कहाँ रहूँगी ? क्या खाऊँगी ? जैसे सवाल जब तक दिमाग में रहेंगे तुम घूमने के लिए बाहर नहीं निकल सकती । लेखिका लिखती है कि “ट्रेन सही समय पर होगी, इसकी भी कोई गारंटी नहीं । जूते शायद टूट जायेंगे, या बिना छाते के कभी भींगना पड़ सकता है, कभी रूकने की जगह ठीक नहीं होगी, कभी गर्म खाना नसीब नहीं होगा । फिर भी कहूँगी एक बात की ये अनजान गलियाँ- जहाँ तुम फिरोगी टैम-बेटैम, बेकाम-बेवजह-तुम्हारे अपने घर से ज्यादा सुरक्षित होंगी ।”[1]

अनुराधा घुमक्कड़ है और घूमना उन्होंने बचपन से ही शुरू कर दिया था । जब उन्हें चैस टूर्नामेंटों में खेलने के लिए बाहर कहीं ना कहीं जाना पड़ता था और फिर पापा के स्कूटर से फिरने का चस्का लगा । जब मम्मी-पापा सब सो जाते तो वह स्कूटर लेकर बेवजह, बेकाम गोहाना की गलियों में घूमती रहती थी और इन गलियों से निकलकर बेफिक्री से घूमने का बीज बोया था पुणे में इक्कीस साल की इटालियन लड़की रमोना ने । रमोना से ही सीखा जो मन में आये वही करना है और सीखा कि कपड़ों और गाँठ लगे जूतों का ब्रांड अमीरी नहीं, बल्कि आजादी है । अनुराधा रमोना के बारे में लिखती है कि “वह मेरी हीरो थी । मेरा लक्ष्य इस जीवन में गाड़ी-बंगला बनाना नहीं, अपने शरीर के साथ, अपने इमोशन्स के साथ इतना ही कम्फर्टेबल होना था । मुझे उन बेड़ियों को काटकर आसमान में उड़ना था । और कोई चारा बचा नहीं था, एक बार आजादी चख लेना खून चख लेने जैसा है, एक बार चख लिया तो फिर कोई वापसी नहीं ।”[2] इसी आजादी को चखने के लिए ही तो अनुराधा आज गोहाना की गलियों से निकलकर लन्दन-पेरिस की गलियों को नापने लगी है और उसकी इसी घुमक्कड़ी की दास्तान है ‘आजादी मेरा ब्रांड’ ।

          यह किताब स्त्री की आजादी व स्त्री-विमर्श को नए सिरे से उठाती चलती है । अनुराधा अपने समाज और देश पर सवाल खड़े करती है । वह जिस समाज में पैदा हुई वहाँ व्यक्तिगत स्वतंत्रता जैसी कोई चीज नहीं थी । लड़की के पैदा होते ही उसे ‘संस्कारी’ और ‘लायक’ बनाने की कोशिशें शुरू हो जाती थी । इन्हीं ‘संस्कारी’ और ‘अच्छी लड़की’ जैसे शब्दों से निजात पाने व अपनी निजता की तलाश में लेखिका निकल पड़ती है । वैसे देखा जाये तो यह पुस्तक स्त्री-विमर्श या नारीवाद जैसे किसी विमर्श को प्रस्तुत नहीं करती है फिर भी लड़कियों के लिए सम्मान के साथ जिन्दा रहने, अपनी निजता व स्पेस को खोजने की तलाश है । अनुराधा अपनी निजता के सम्बन्ध में कहती है कि “मेरी निजता सिर्फ मेरी देह के मुक्त होने भर में नहीं-यह मैंने बहुत जल्द समझ लिया था । वह भी जरूरी है, आज भी मानती हूँ । लेकिन आजादी का बोझ इतने भर में सीमित नहीं । देह की आजादी को पाना आसान है । इस लड़ाई से पार पाना अपने वश में है; बशर्तें ‘बिगड़ी हुई’, ‘होर’, ‘रंडी’ – जैसे विशेषणों को हँसकर उड़ाने भर की मानसिक मजबूती हो ।”[3] 

                   एक महीने में की गई इन यात्राओं की शुरुआत लन्दन व पेरिस से होती है और अंत में इन्सबुर्क, बर्न होते हुए पेरिस में आकर ख़त्म होती है । इस यात्रा में सबसे अधिक रोचक है- रास्ते में लिफ्ट देने वाले लोग, घर में जगह देने वाले होस्ट, फिर लेखिका का अनजान शहरों की अनजान गलियों में पैदल घूमना, जिसमें वो रास्ता भूलकर भटकती है, पैदल चलती है, कभी गलत रास्तों पर जाकर वापस आधा घंटे उसी रास्ते पर चलना, कभी रास्ते का पता नहीं होने पर भी चलती रहती है, तो कहीं उसका फ्री वाई-फाई व टॉयलेट के लिए कैफे ढूंढते फिरना । सहज ही आकर्षित करते हैं । वह यूरोप के महंगे शहरों में जाकर होटलों में अपने पैसे बर्बाद नहीं करना चाहती। महंगी ट्रेनों के टिकट लेने से पहले भी चार बार सोचती है । जाने के लिए लिफ्ट और आसरे के लिए वह होस्ट ढूँढती रहती है । और उसे अलग-अलग किस्म के लोग मिलते हैं, कहीं एक अकेले आदमी के साथ रूकती है तो कहीं चालीस लोगों के साथ, कहीं गेट बंद करने के लिए चिटकनी नहीं होती है तो किसी का बाथरूम जंगल की तरह लगता है। कही धर्म को लेकर बहस चलती है तो कहीं माँ-बेटी के रिश्तों व उनके अलग रहने को लेकर बातें । मददगार, दोस्त व मानवीयता के नए आयाम दिखाते कई तरह के होस्ट मिलते हैं । इन्हीं के साथ लेखिका रूकती है, ठहरती है, मन और बजट के अनुसार आगे बढ़ती जाती है ।

          दुनिया घूमकर अपना निजी स्पेस बनाती एक लड़की का यह यात्रा वृत्तांत स्त्री की आजादी का दस्तावेज़ है । एक भारतीय लड़की को घर से बाहर निकलने से पहले बहुत कुछ सोचना पड़ता है और सुनना भी पड़ता है । अनुराधा लिखती है कि “मेरे समाज की लड़कियाँ यूँ ही बिना काम नहीं टहलती थीं । लड़की का बाहर जाना बिना किसी काम के अकल्पनीय था । क्यों जाएगी लड़की बाहर ? क्या करने ? जरूर किसी से मिलने जाती होगी । या कोई काम करवाने ।”[4]                       

लेखिका हर जगह अपने समाज के लोगों से सवाल करती और लड़कियों को संबोधित करती हुई चलती है । एक समाज में लड़कियों को किस नजरिये से देखा जाता है । उसे बताती है तो साथ ही वह लड़कियों को बेड़ियाँ काटकर आसमान में उड़ने के लिए प्रेरित करती है । वह अपनी निजता की तलाश में कभी पुणे से जैसलमेर तो कभी यूरोप के अलग-अलग शहरों में भटकती रहती है और उसकी निजता अंत में जाकर हर एक भारतीय लड़की की निजता बन जाती है । वह सवाल करती है कि “क्यों नहीं चलने देते तुम मुझे ? क्यों मुझे रह-रहकर नज़रों से नंगा करते हो ? क्या तुम्हें मैं अकेले चलती नहीं सुहाती ? मेरे महान देश के महान नारी पूजकों, जवाब दो । मेरी महान संस्कृति के रखवालों, जवाब दो । मैं चलते-चलते जैसे चीखने लगती हूँ । मुझे बताओ मेरी संस्कृति के ठेकेदारों, क्यों इतना मुश्किल है एक लड़की का अकेले घर से निकल चल पाना ? जो समाज एक लड़की का अकेले सड़क पर चलना बर्दास्त नहीं कर सकता, वह समाज सड़ चुका है । वह कल्चर जो एक अकेले लड़की को सुरक्षित महसूस नहीं करा सकता, वह गोबर कल्चर है ।”[5]  

यह पुस्तक भारत की स्त्रियों के लिए स्वतंत्रता का एक घोषणा पत्र है जिसमें वह लड़कियों से धर्म, संस्कार, मर्यादा की बेड़ियों को तोड़कर, सब कुछ भूलकर घूमने की हिमायत करती है । वह ‘सबके बाद, हमवतन लड़कियों के नाम’ से लड़कियों को सन्देश देती है कि “तुम चलना । अपने गाँव में नहीं चल पा रही तो अपने शहर में चलना । अपने शहर में नहीं चल पा रही तो अपने देश में चलना । अपना देश भी मुश्किल करता है चलना तो यह दुनिया भी तेरी ही है, अपनी दुनिया में चलना लेकिन तुम चलना । तुम आजाद बेफिक्र, बेपरवाह, बेकाम, बेहया होकर चलना । तुम अपने दुपट्टे जला कर, अपनी ब्रा साईड से निकाल कर, खुले फ्रांक पहनकर चलना । तुम चलना जरूर ।”[6]

स्त्रियों को लेकर भी वह देखती है कि ऐसा क्या है इन देशों में जहाँ महिलाओं को इतनी आजादी, सुरक्षा व आत्मनिर्भरता मिली हुई है । वह अकेले यात्रा करती है, अनजान लोगों के घरों में रूकती है । आधी रात में भी वह सड़कों पर अनजान राहों में घूमती रहती है । इसी आजादी को वह अपने देश में ले जाना चाहती है । जिससे वह अपने गाँव, शहर, खेतों में स्वछन्द होकर घूम सकें । “चीखते-चीखते अब मैं रोने लगी थी – मैं वह चीज लिए बिना नहीं जाऊँगी...मैं जोर-जोर से गालियाँ देती रही । मैं चीख-चीखकर रोती रही । मैं रास्ते में चलते लोगों से वह चीज माँगती रही । प्लीज, मुझे वह चीज दे दो । मैं अपने देश ले जाना चाहती हूँ । मैं अपने देश में जीना चाहती हूँ । मैं अपने देश में चल सकना चाहती हूँ । वैसे जैसे चलना चाहिए किसी भी मनुष्य को, क्या मर्द, क्या औरत ! बेफिक्र, बेपरवाह, स्वतंत्र मन और स्वतंत्र विचार से, स्वतंत्रता के अहसास से !”[7] वह देश, काल, समाज, व्यवस्था, परम्परा सभी को लेकर प्रश्न उठाती है । झीलों, पहाड़ियों, मीनारों, सड़कों, बाजारों, इमारतों के साथ-साथ इतिहास, भूगोल व समाज पर भी वह अपनी दृष्टि डालती हुई चलती है । पाठक को अपने सम्पर्क में आने वाले हर एक व्यक्ति से परिचय करवाती है । विदेश में घूमकर भी अपने देश से शिकायतें होने के बावजूद वह उसे कभी भूलती नहीं है । जब वह लिफ्ट लेकर गाड़ी में जा रही होती है तो बताती है कि किसी से भी मिलों तब या तो वह भारत जा कर आ गया या जाना चाहता है जब उससे भारत की विस्तृतता के बारे में पूछा जाता है तो भारत की विस्तृतता व विविधता में एकता को बताते हुए समन्वयवादी दृष्टिकोण से वह कहती है कि “एक मौसम थोड़ी है मेरे देश में, ना ही एक भूगोल । न एक रंग और न एक ही ढंग । मोह भी है मेरे देश में और माया भी । धर्म भी है और पाखंड भी । ध्यान भी है मोक्ष भी । सीता भी है और दुर्गा भी। दया भी है और अहंकार भी है । प्रेम भी है और लाचारी भी । मेरे देश में जाओ तो कोई एक प्लान बनाकर मत जाना । वह खुद तुम्हारे लिए प्लान बनाएगा । खाली दिमाग लेकर जाना। जाने कब सामने भूखा नंगा भिखारी आ जाएँ और जाने कब आ जाएँ ये बड़ी बड़ी गाड़ियों का रेला ! जाने कब पॉकेट कट जाएँ और जाने कब कोई अपना पेट काटकर तुम्हें खिला दे । बड़ा अनोखा है मेरा देश !”[8] लेखिका विदेश में होकर भी अपने देश, अपनी मिट्टी को नहीं भूलती है । बरसाय में जाकर वहाँ फ़्रांस व हरियाणा की समानताओं को देखती है वह कहती है कि “घर में हरियाणा और फ़्रांस का एक रोचक मेल दिखा मुझे । रसोई में स्टील के बर्तन और ड्राइंग रूम में फ्रेंच रेवोल्यूशन की किताबें । दरवाजे पर तोरण और रसोई में पास्ता । बच्चे बोलें फ्रेंच और माँ हरयाणवी ।”[9] 

 अनुराधा लड़कियों के घूमने पर सबसे अधिक जोर देती है । वह कहती है कि तुम्हें खुद पर यकीन रखते हुए, खुद का सहारा बनकर अपने आप के साथ घूमना है । अपने गम, खुशियाँ, तन्हाई लेकर इस दुनिया को देखना है । इस दुनिया में कुछ पाने और कुछ खोने के लिए तुम घूमना । लेकिन तुम्हें घूमना है । जिससे यह परम्परा आगे भी बढ़ती चलेगी । वह लिखती है कि “तुम चलोगी तो तुम्हारी बेटी भी चलेगी, और मेरी बेटी भी । फिर हम सब की बेटियाँ चलेंगी । और जब सब साथ चलेंगी तो सब आजाद, बेफिक्र और बेपरवाह ही चलेंगी । दुनिया को हमारे चलने की आदत हो जायेगी । अगर नहीं होती तो आदत डलवानी पड़ेगी, लेकिन डर कर घर में मत रह जाना ।”[10]

इस पुस्तक में लेखिका का व्यक्तित्व खुलकर प्रस्तुत हुआ है । वह देह की मुक्ति से लेकर हर तरह के सामाजिक बन्धनों को तोड़ती हुई अपनी इच्छाओं, आकांक्षाओं, विचारों सब कुछ  को उघाड़कर प्रस्तुत कर देती है । कहीं भी लज्जा व शर्म के मारे कुछ भी छुपाती नहीं है । अपनी कमजोरियों और ताकत को साहस और आत्मविश्वास के साथ प्रस्तुत करती है । जिससे इसकी ईमानदारी हर जगह प्रभावित करती है । लेखिका कहती है मुझे चल सकने की आजादी चाहिए । टेम-बेटेम, बिंदास, बेफिक्र होकर, हँसते-रोते, सिर उठाकर सड़क पर निकल पड़ने की आजादी । कुछ अच्छे-बुरे, अनहोनी की चिंता किए बगैर अकेले ही चल पड़ने की आजादी की तलाश में अनजाने शहरों की भूल-भूलैय्या में बेवजह, बेफिक्र, अनजान, अकेले-फिरते अपरिचितों से रास्ता पूछते अजनबी लोगों के घरों में ठिकाना बनाते एक महीने में की गई यह यात्रा देशकाल के कई नवीन आयामों को प्रस्तुत करती हुई चलती है ।

इस पुस्तक की एक और महत्वपूर्ण विशेषता है इसकी भाषा । लेखिका की तरह ही बेफिक्र, लापरवाह-सी भाषा । जो लगातार बात करती चलती है । कहीं पर भी बोझिलता महसूस नहीं होती । हिंदी, अंग्रेजी, देशी-विदेशी सभी तरह के शब्दों का प्रयोग इस किताब में हुआ है । परन्तु शब्दकोश हाथ में लेने की जरूरत कही नहीं पड़ती । चाहे शब्द प्रयोग हो या वाक्य प्रयोग हर जगह भाषा प्रयोग एकदम बिंदास है । लेखिका भाषा के अधिक दाँव-पेंच नहीं अपनाती है । पढ़ते समय ऐसा लगता है कि कोई पास बैठकर बातें कर रहा हो, किस्से सुना रहा हो । इसकी भाषा हिंदी को साहित्यिकता के एक निश्चित दायरे से निकाल कर साधारण करके हिंदी की लोकप्रियता को बढ़ाती है । उन्होंने पाठक से संवाद करते हुए, बिना किसी झिझक के अपनी सोच को अभिव्यक्त किया है । लेखिका के अन्दर आत्मविश्वास की एक लहर है, जो शब्दों के माध्यम से अभिव्यक्ति प्राप्त करती है ।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि यह किताब घुमक्कड़ों और विशेषकर भारतीय स्त्रियों के लिए एक महत्वपूर्ण पुस्तक है । जो रूढ़ संस्कृति के दायरे से बाहर निकल कर आजादी की बात करती है । इसके सम्बन्ध में अनामिका कहती है कि “आजादी मेरा ब्रांड नए सिरे से स्त्री-दर्शन का यह आधारभूत तथ्य रेखांकित कर रही है कि परिवार रक्त और यौन संबंधों के दायरे तक सीमित नहीं माने जा सकते । यौनिकता, नैतिकता और पारिवारिकता की नई परिभाषाएँ कोई पदानुक्रम नहीं मानती, न लड़का-लड़की के बीच, न पाठक-लेखक के...अनुराधा अपने वृत्तान्त में जिन चुनिंदा क्षणों का प्रति संसार रचती है, उसका बस एक ही सपना है कि किसी के जीवन का स्वीच किसी और के हाथ में न हो...”[11]  

संदर्भ :-

1.   अनुराधा बेनीवाल, ‘आजादी मेरा ब्रांड’(2016), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ.13 भूमिका से  

2.   वही, पृ. 6

3.   वही, पृ. 10

4.   वही, भूमिका 14-15

5.   वही, पृ. 186

6.   वही, पृ. 188

7.   वही, पृ. 186-187

8.   वही, पृ. 67

9.   वही, पृ. 27

10.    वही. 188

11.    वही, फ्लैप पेज से

 

 

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