Wednesday, July 22, 2020

स्त्री की आजादी का दस्तावेज : आजादी मेरा ब्रांड

स्त्री की आजादी का दस्तावेज : आजादी मेरा ब्रांड

                                                        स्वाति चौधरी 


शतरंज चैम्पियन, हरियाणवी छोरी अनुराधा बेनीवाल की यूरोप घुमक्कड़ी के संस्मरणों के आख्यान ‘यायावरी आवारगी’ की पुस्तक श्रृ्ंख्ला में ‘आजादी मेरा ब्रांड’ पहली किताब है, जिसका प्रकाशन राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली से जनवरी 2016 में हुआ । स्त्री की स्वतंत्रता की आवाज को बुलंद करती इस कृति का वास्तविक ब्रांड आजादी है । इसी आजादी की तलाश में यूरोप के 13 देशों में एक लड़की के द्वारा की गयी घुमक्कड़ी की कहानी इसमें है । अकेले, बिना किसी मकसद के, बेपरवाह, बेफिक्र होकर की गई यात्राओं का वृतांत है । एक अकेली बेकाम, बेफिक्र, बेटेम घूमती-फिरती लड़की में अलग ही ताकत होती है, साहस होता है । ऐसा साहस जिसे बाहर निकलने का मौका ही नहीं दिया जाता । इसी साहस के दम पर की गई बेमकसद यात्राओं की अनूठी दास्तान है ‘आजादी मेरा ब्रांड’ ।

इस श्रृ्ंख्ला में यूरोप के तेरह शहर लन्दन, पेरिस, लील, ब्रसल्स, कॉकसाईड, एम्स्टर्डम, बर्लिन, प्राग, ब्रातिस्लावा, बुडापेस्ट, म्युनिक, इंस्ब्रुक, बर्न की एकाकी यात्राओं के वृत्तांत है । इन एकाकी यात्राओं में कहीं पर भी ऊब महसूस नहीं होती है । ज्ञान के बोझ से कहीं पर भी भारीपन नहीं लगता है । बल्कि इसमें तो पाठक भी साथ-साथ यात्रा करने लगता है, इस यात्रा में यह अजनबी, आवारा लड़की कब आपकी दोस्त बन जाती है पता ही नहीं चलता और अन्दर और बाहर दोनों ही तरह की यात्राओं से रूबरू कराती चलती है, इसमें जितनी यात्राएँ बाहर की दुनिया की है, उतनी ही अन्दर की दुनिया की भी है और यह इन्हीं दोनों दुनियाओं को जोड़ती हुई चलती है ।

आरम्भ में ही अनुराधा कहती है कि यात्रा के लिए खुद को ही निकलना पड़ेगा । कोई तुम्हारा हाथ पकड़कर नहीं ले जा सकता । अकेले कैसे जाएँ, घरवाले जाने देंगे, बाहर कितना सेफ है ? कहाँ रहूँगी ? क्या खाऊँगी ? जैसे सवाल जब तक दिमाग में रहेंगे तुम घूमने के लिए बाहर नहीं निकल सकती । लेखिका लिखती है कि “ट्रेन सही समय पर होगी, इसकी भी कोई गारंटी नहीं । जूते शायद टूट जायेंगे, या बिना छाते के कभी भींगना पड़ सकता है, कभी रूकने की जगह ठीक नहीं होगी, कभी गर्म खाना नसीब नहीं होगा । फिर भी कहूँगी एक बात की ये अनजान गलियाँ- जहाँ तुम फिरोगी टैम-बेटैम, बेकाम-बेवजह-तुम्हारे अपने घर से ज्यादा सुरक्षित होंगी ।”[1]

अनुराधा घुमक्कड़ है और घूमना उन्होंने बचपन से ही शुरू कर दिया था । जब उन्हें चैस टूर्नामेंटों में खेलने के लिए बाहर कहीं ना कहीं जाना पड़ता था और फिर पापा के स्कूटर से फिरने का चस्का लगा । जब मम्मी-पापा सब सो जाते तो वह स्कूटर लेकर बेवजह, बेकाम गोहाना की गलियों में घूमती रहती थी और इन गलियों से निकलकर बेफिक्री से घूमने का बीज बोया था पुणे में इक्कीस साल की इटालियन लड़की रमोना ने । रमोना से ही सीखा जो मन में आये वही करना है और सीखा कि कपड़ों और गाँठ लगे जूतों का ब्रांड अमीरी नहीं, बल्कि आजादी है । अनुराधा रमोना के बारे में लिखती है कि “वह मेरी हीरो थी । मेरा लक्ष्य इस जीवन में गाड़ी-बंगला बनाना नहीं, अपने शरीर के साथ, अपने इमोशन्स के साथ इतना ही कम्फर्टेबल होना था । मुझे उन बेड़ियों को काटकर आसमान में उड़ना था । और कोई चारा बचा नहीं था, एक बार आजादी चख लेना खून चख लेने जैसा है, एक बार चख लिया तो फिर कोई वापसी नहीं ।”[2] इसी आजादी को चखने के लिए ही तो अनुराधा आज गोहाना की गलियों से निकलकर लन्दन-पेरिस की गलियों को नापने लगी है और उसकी इसी घुमक्कड़ी की दास्तान है ‘आजादी मेरा ब्रांड’ ।

          यह किताब स्त्री की आजादी व स्त्री-विमर्श को नए सिरे से उठाती चलती है । अनुराधा अपने समाज और देश पर सवाल खड़े करती है । वह जिस समाज में पैदा हुई वहाँ व्यक्तिगत स्वतंत्रता जैसी कोई चीज नहीं थी । लड़की के पैदा होते ही उसे ‘संस्कारी’ और ‘लायक’ बनाने की कोशिशें शुरू हो जाती थी । इन्हीं ‘संस्कारी’ और ‘अच्छी लड़की’ जैसे शब्दों से निजात पाने व अपनी निजता की तलाश में लेखिका निकल पड़ती है । वैसे देखा जाये तो यह पुस्तक स्त्री-विमर्श या नारीवाद जैसे किसी विमर्श को प्रस्तुत नहीं करती है फिर भी लड़कियों के लिए सम्मान के साथ जिन्दा रहने, अपनी निजता व स्पेस को खोजने की तलाश है । अनुराधा अपनी निजता के सम्बन्ध में कहती है कि “मेरी निजता सिर्फ मेरी देह के मुक्त होने भर में नहीं-यह मैंने बहुत जल्द समझ लिया था । वह भी जरूरी है, आज भी मानती हूँ । लेकिन आजादी का बोझ इतने भर में सीमित नहीं । देह की आजादी को पाना आसान है । इस लड़ाई से पार पाना अपने वश में है; बशर्तें ‘बिगड़ी हुई’, ‘होर’, ‘रंडी’ – जैसे विशेषणों को हँसकर उड़ाने भर की मानसिक मजबूती हो ।”[3] 

                   एक महीने में की गई इन यात्राओं की शुरुआत लन्दन व पेरिस से होती है और अंत में इन्सबुर्क, बर्न होते हुए पेरिस में आकर ख़त्म होती है । इस यात्रा में सबसे अधिक रोचक है- रास्ते में लिफ्ट देने वाले लोग, घर में जगह देने वाले होस्ट, फिर लेखिका का अनजान शहरों की अनजान गलियों में पैदल घूमना, जिसमें वो रास्ता भूलकर भटकती है, पैदल चलती है, कभी गलत रास्तों पर जाकर वापस आधा घंटे उसी रास्ते पर चलना, कभी रास्ते का पता नहीं होने पर भी चलती रहती है, तो कहीं उसका फ्री वाई-फाई व टॉयलेट के लिए कैफे ढूंढते फिरना । सहज ही आकर्षित करते हैं । वह यूरोप के महंगे शहरों में जाकर होटलों में अपने पैसे बर्बाद नहीं करना चाहती। महंगी ट्रेनों के टिकट लेने से पहले भी चार बार सोचती है । जाने के लिए लिफ्ट और आसरे के लिए वह होस्ट ढूँढती रहती है । और उसे अलग-अलग किस्म के लोग मिलते हैं, कहीं एक अकेले आदमी के साथ रूकती है तो कहीं चालीस लोगों के साथ, कहीं गेट बंद करने के लिए चिटकनी नहीं होती है तो किसी का बाथरूम जंगल की तरह लगता है। कही धर्म को लेकर बहस चलती है तो कहीं माँ-बेटी के रिश्तों व उनके अलग रहने को लेकर बातें । मददगार, दोस्त व मानवीयता के नए आयाम दिखाते कई तरह के होस्ट मिलते हैं । इन्हीं के साथ लेखिका रूकती है, ठहरती है, मन और बजट के अनुसार आगे बढ़ती जाती है ।

          दुनिया घूमकर अपना निजी स्पेस बनाती एक लड़की का यह यात्रा वृत्तांत स्त्री की आजादी का दस्तावेज़ है । एक भारतीय लड़की को घर से बाहर निकलने से पहले बहुत कुछ सोचना पड़ता है और सुनना भी पड़ता है । अनुराधा लिखती है कि “मेरे समाज की लड़कियाँ यूँ ही बिना काम नहीं टहलती थीं । लड़की का बाहर जाना बिना किसी काम के अकल्पनीय था । क्यों जाएगी लड़की बाहर ? क्या करने ? जरूर किसी से मिलने जाती होगी । या कोई काम करवाने ।”[4]                       

लेखिका हर जगह अपने समाज के लोगों से सवाल करती और लड़कियों को संबोधित करती हुई चलती है । एक समाज में लड़कियों को किस नजरिये से देखा जाता है । उसे बताती है तो साथ ही वह लड़कियों को बेड़ियाँ काटकर आसमान में उड़ने के लिए प्रेरित करती है । वह अपनी निजता की तलाश में कभी पुणे से जैसलमेर तो कभी यूरोप के अलग-अलग शहरों में भटकती रहती है और उसकी निजता अंत में जाकर हर एक भारतीय लड़की की निजता बन जाती है । वह सवाल करती है कि “क्यों नहीं चलने देते तुम मुझे ? क्यों मुझे रह-रहकर नज़रों से नंगा करते हो ? क्या तुम्हें मैं अकेले चलती नहीं सुहाती ? मेरे महान देश के महान नारी पूजकों, जवाब दो । मेरी महान संस्कृति के रखवालों, जवाब दो । मैं चलते-चलते जैसे चीखने लगती हूँ । मुझे बताओ मेरी संस्कृति के ठेकेदारों, क्यों इतना मुश्किल है एक लड़की का अकेले घर से निकल चल पाना ? जो समाज एक लड़की का अकेले सड़क पर चलना बर्दास्त नहीं कर सकता, वह समाज सड़ चुका है । वह कल्चर जो एक अकेले लड़की को सुरक्षित महसूस नहीं करा सकता, वह गोबर कल्चर है ।”[5]  

यह पुस्तक भारत की स्त्रियों के लिए स्वतंत्रता का एक घोषणा पत्र है जिसमें वह लड़कियों से धर्म, संस्कार, मर्यादा की बेड़ियों को तोड़कर, सब कुछ भूलकर घूमने की हिमायत करती है । वह ‘सबके बाद, हमवतन लड़कियों के नाम’ से लड़कियों को सन्देश देती है कि “तुम चलना । अपने गाँव में नहीं चल पा रही तो अपने शहर में चलना । अपने शहर में नहीं चल पा रही तो अपने देश में चलना । अपना देश भी मुश्किल करता है चलना तो यह दुनिया भी तेरी ही है, अपनी दुनिया में चलना लेकिन तुम चलना । तुम आजाद बेफिक्र, बेपरवाह, बेकाम, बेहया होकर चलना । तुम अपने दुपट्टे जला कर, अपनी ब्रा साईड से निकाल कर, खुले फ्रांक पहनकर चलना । तुम चलना जरूर ।”[6]

स्त्रियों को लेकर भी वह देखती है कि ऐसा क्या है इन देशों में जहाँ महिलाओं को इतनी आजादी, सुरक्षा व आत्मनिर्भरता मिली हुई है । वह अकेले यात्रा करती है, अनजान लोगों के घरों में रूकती है । आधी रात में भी वह सड़कों पर अनजान राहों में घूमती रहती है । इसी आजादी को वह अपने देश में ले जाना चाहती है । जिससे वह अपने गाँव, शहर, खेतों में स्वछन्द होकर घूम सकें । “चीखते-चीखते अब मैं रोने लगी थी – मैं वह चीज लिए बिना नहीं जाऊँगी...मैं जोर-जोर से गालियाँ देती रही । मैं चीख-चीखकर रोती रही । मैं रास्ते में चलते लोगों से वह चीज माँगती रही । प्लीज, मुझे वह चीज दे दो । मैं अपने देश ले जाना चाहती हूँ । मैं अपने देश में जीना चाहती हूँ । मैं अपने देश में चल सकना चाहती हूँ । वैसे जैसे चलना चाहिए किसी भी मनुष्य को, क्या मर्द, क्या औरत ! बेफिक्र, बेपरवाह, स्वतंत्र मन और स्वतंत्र विचार से, स्वतंत्रता के अहसास से !”[7] वह देश, काल, समाज, व्यवस्था, परम्परा सभी को लेकर प्रश्न उठाती है । झीलों, पहाड़ियों, मीनारों, सड़कों, बाजारों, इमारतों के साथ-साथ इतिहास, भूगोल व समाज पर भी वह अपनी दृष्टि डालती हुई चलती है । पाठक को अपने सम्पर्क में आने वाले हर एक व्यक्ति से परिचय करवाती है । विदेश में घूमकर भी अपने देश से शिकायतें होने के बावजूद वह उसे कभी भूलती नहीं है । जब वह लिफ्ट लेकर गाड़ी में जा रही होती है तो बताती है कि किसी से भी मिलों तब या तो वह भारत जा कर आ गया या जाना चाहता है जब उससे भारत की विस्तृतता के बारे में पूछा जाता है तो भारत की विस्तृतता व विविधता में एकता को बताते हुए समन्वयवादी दृष्टिकोण से वह कहती है कि “एक मौसम थोड़ी है मेरे देश में, ना ही एक भूगोल । न एक रंग और न एक ही ढंग । मोह भी है मेरे देश में और माया भी । धर्म भी है और पाखंड भी । ध्यान भी है मोक्ष भी । सीता भी है और दुर्गा भी। दया भी है और अहंकार भी है । प्रेम भी है और लाचारी भी । मेरे देश में जाओ तो कोई एक प्लान बनाकर मत जाना । वह खुद तुम्हारे लिए प्लान बनाएगा । खाली दिमाग लेकर जाना। जाने कब सामने भूखा नंगा भिखारी आ जाएँ और जाने कब आ जाएँ ये बड़ी बड़ी गाड़ियों का रेला ! जाने कब पॉकेट कट जाएँ और जाने कब कोई अपना पेट काटकर तुम्हें खिला दे । बड़ा अनोखा है मेरा देश !”[8] लेखिका विदेश में होकर भी अपने देश, अपनी मिट्टी को नहीं भूलती है । बरसाय में जाकर वहाँ फ़्रांस व हरियाणा की समानताओं को देखती है वह कहती है कि “घर में हरियाणा और फ़्रांस का एक रोचक मेल दिखा मुझे । रसोई में स्टील के बर्तन और ड्राइंग रूम में फ्रेंच रेवोल्यूशन की किताबें । दरवाजे पर तोरण और रसोई में पास्ता । बच्चे बोलें फ्रेंच और माँ हरयाणवी ।”[9] 

 अनुराधा लड़कियों के घूमने पर सबसे अधिक जोर देती है । वह कहती है कि तुम्हें खुद पर यकीन रखते हुए, खुद का सहारा बनकर अपने आप के साथ घूमना है । अपने गम, खुशियाँ, तन्हाई लेकर इस दुनिया को देखना है । इस दुनिया में कुछ पाने और कुछ खोने के लिए तुम घूमना । लेकिन तुम्हें घूमना है । जिससे यह परम्परा आगे भी बढ़ती चलेगी । वह लिखती है कि “तुम चलोगी तो तुम्हारी बेटी भी चलेगी, और मेरी बेटी भी । फिर हम सब की बेटियाँ चलेंगी । और जब सब साथ चलेंगी तो सब आजाद, बेफिक्र और बेपरवाह ही चलेंगी । दुनिया को हमारे चलने की आदत हो जायेगी । अगर नहीं होती तो आदत डलवानी पड़ेगी, लेकिन डर कर घर में मत रह जाना ।”[10]

इस पुस्तक में लेखिका का व्यक्तित्व खुलकर प्रस्तुत हुआ है । वह देह की मुक्ति से लेकर हर तरह के सामाजिक बन्धनों को तोड़ती हुई अपनी इच्छाओं, आकांक्षाओं, विचारों सब कुछ  को उघाड़कर प्रस्तुत कर देती है । कहीं भी लज्जा व शर्म के मारे कुछ भी छुपाती नहीं है । अपनी कमजोरियों और ताकत को साहस और आत्मविश्वास के साथ प्रस्तुत करती है । जिससे इसकी ईमानदारी हर जगह प्रभावित करती है । लेखिका कहती है मुझे चल सकने की आजादी चाहिए । टेम-बेटेम, बिंदास, बेफिक्र होकर, हँसते-रोते, सिर उठाकर सड़क पर निकल पड़ने की आजादी । कुछ अच्छे-बुरे, अनहोनी की चिंता किए बगैर अकेले ही चल पड़ने की आजादी की तलाश में अनजाने शहरों की भूल-भूलैय्या में बेवजह, बेफिक्र, अनजान, अकेले-फिरते अपरिचितों से रास्ता पूछते अजनबी लोगों के घरों में ठिकाना बनाते एक महीने में की गई यह यात्रा देशकाल के कई नवीन आयामों को प्रस्तुत करती हुई चलती है ।

इस पुस्तक की एक और महत्वपूर्ण विशेषता है इसकी भाषा । लेखिका की तरह ही बेफिक्र, लापरवाह-सी भाषा । जो लगातार बात करती चलती है । कहीं पर भी बोझिलता महसूस नहीं होती । हिंदी, अंग्रेजी, देशी-विदेशी सभी तरह के शब्दों का प्रयोग इस किताब में हुआ है । परन्तु शब्दकोश हाथ में लेने की जरूरत कही नहीं पड़ती । चाहे शब्द प्रयोग हो या वाक्य प्रयोग हर जगह भाषा प्रयोग एकदम बिंदास है । लेखिका भाषा के अधिक दाँव-पेंच नहीं अपनाती है । पढ़ते समय ऐसा लगता है कि कोई पास बैठकर बातें कर रहा हो, किस्से सुना रहा हो । इसकी भाषा हिंदी को साहित्यिकता के एक निश्चित दायरे से निकाल कर साधारण करके हिंदी की लोकप्रियता को बढ़ाती है । उन्होंने पाठक से संवाद करते हुए, बिना किसी झिझक के अपनी सोच को अभिव्यक्त किया है । लेखिका के अन्दर आत्मविश्वास की एक लहर है, जो शब्दों के माध्यम से अभिव्यक्ति प्राप्त करती है ।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि यह किताब घुमक्कड़ों और विशेषकर भारतीय स्त्रियों के लिए एक महत्वपूर्ण पुस्तक है । जो रूढ़ संस्कृति के दायरे से बाहर निकल कर आजादी की बात करती है । इसके सम्बन्ध में अनामिका कहती है कि “आजादी मेरा ब्रांड नए सिरे से स्त्री-दर्शन का यह आधारभूत तथ्य रेखांकित कर रही है कि परिवार रक्त और यौन संबंधों के दायरे तक सीमित नहीं माने जा सकते । यौनिकता, नैतिकता और पारिवारिकता की नई परिभाषाएँ कोई पदानुक्रम नहीं मानती, न लड़का-लड़की के बीच, न पाठक-लेखक के...अनुराधा अपने वृत्तान्त में जिन चुनिंदा क्षणों का प्रति संसार रचती है, उसका बस एक ही सपना है कि किसी के जीवन का स्वीच किसी और के हाथ में न हो...”[11]  

संदर्भ :-

1.   अनुराधा बेनीवाल, ‘आजादी मेरा ब्रांड’(2016), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ.13 भूमिका से  

2.   वही, पृ. 6

3.   वही, पृ. 10

4.   वही, भूमिका 14-15

5.   वही, पृ. 186

6.   वही, पृ. 188

7.   वही, पृ. 186-187

8.   वही, पृ. 67

9.   वही, पृ. 27

10.    वही. 188

11.    वही, फ्लैप पेज से

 

 

Thursday, July 16, 2020

स्त्री यातना का रक्तरंजित दस्तावेज : देह ही देश

स्त्री यातना का रक्तरंजित दस्तावेज : देह ही देश
                      स्वाति चौधरी

        ‘देह ही देश’ सन् 2017 में प्रकाशित गरिमा श्रीवास्तव की क्रोएशिया प्रवास के दौरान लिखी गई यात्रा डायरी है । इससे पहले भी इस डायरी के अंश ‘हंस’ पत्रिका में प्रकाशित हुए थे । यह यात्रा और डायरी दोनों का सम्मिलित रूप है जो 2009-2010 के दो अकादमिक सत्रों में भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद की ओर से जाग्रेब विश्वविद्यालय के सुदूर पूर्वी अध्ययन विभाग में प्रतिनियुक्ति के दौरान लिखी गई थी । यह सर्ब-क्रोआती बोस्नियाई संघर्ष के दौरान स्त्रियों द्वारा भोगे गए यथार्थ का दस्तावेज है जिसमें 90 के दशक में पूर्वी यूरोप के सयुंक्त युगोस्लाविया में हुए युद्ध और विखंडन से विस्थापित हुए लोगों को खासकर स्त्री की शारीरिक एवं मानसिक शोषण की स्थितियों का चित्रण किया गया है ।

इसमें सामूहिक बलात्कार की शिकार बनकर मानसिक संतुलन खो बैठी स्त्रियों की सच्चाई, अपने नवजात की जान बचाने के लिए निर्वसन होने वाली स्त्री की सच्चाई या एरिजोना मार्केट में देह-व्यापार में डूबती उतरती स्त्रियों के सच या उनके अनकहे आख्यानों को सुनाने की कोशिश की गई है । इसमें इन्हीं परिचिताओं की आपबीती को अभिव्यक्ति दी गई है ।

इस यात्रा डायरी में बड़ी ही सूक्ष्मता और व्यापकता के साथ युद्ध, विस्थापन, पुनर्वास व सेक्स जैसे हर तरह के परिदृश्यों को परत-दर-परत उजागर किया गया है । जब-जब इस डायरी को पढ़ने की कोशिश करते हैं मस्तिष्क संवेदना शून्य हो जाता है । ये अन्दर से बाहर और देह से देश तक की ऐसी यात्राएँ है, जहाँ हत्या है, क्रूरता है, बलात्कार से पीड़ित स्त्रियाँ है, सिहरन है, चीखते-चिल्लाते बच्चे है । यह रक्तरंजित युद्ध के इतिहास का सच्चा बयान है । इसके इतिहास को देखे तो इस सर्ब क्रोआती बोस्नियाई संघर्ष की भूमिका 1939-1945 के बीच द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान ही रच दी गई थी । जब संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत रूस के बीच शीतयुद्ध चल रहा था और ये क्रमशः पूँजीवादी और साम्यवादी देश के दो खेमों में बंट गये थे जिससे दोनों में आपसी टकराव का खतरा हमेशा बना रहा और बर्लिन संकट, कोरिया युद्ध और सोवियत रूस द्वारा आण्विक परीक्षण, हिन्द-चीन संकट, क्यूबा मिसाईल संकट ये सब इसी शीतयुद्ध का परिणाम थे और इसी का परिणाम था सर्बियाई-क्रोएशियाई युद्ध जिसके परिणामों का चित्रण इस पुस्तक में किया गया है । तरसेम गुजराल इस यात्रा डायरी के सम्बन्ध में लिखती है कि “रक्तरंजित इस डायरी में जख्मी चिड़ियों के टूटे पंख हैं, तपती रेत पर तड़पती सुनहरी जिल्द वाली मछलियाँ हैं, कांच के मर्तबान में कैद तितलियाँ हैं । युगास्लाविया के विखंडन का इतना सच्चा बयान हिंदी में यह पहला है ।[1]

      किताब की शुरुआत एयरपोर्ट और हवाई यात्रा से होती है । हैदराबाद से दिल्ली और दिल्ली से जाग्रेब । फिर एक नया देश, वहाँ के लोग, खानपान को लेकर होने वाली परेशानी, ठंडा मौसम व बचपन की कुछ झलकियाँ व साथ ही आत्मीय जनों को लिखी जाने वाली चिट्टियाँ । लेकिन फिर शुरू होता है जाग्रेब और क्रोएशिया का इतिहास, युद्ध का इतिहास । जिसमें है खून से सनी औरतें और बच्चे, क्षत-विक्षत जिस्म, गर्भवती होती स्त्रियाँ, जानवरों की तरह खरीदी और बेची जा रही औरतें, जंगलों की तरफ भागते पुरुष व भेड़ियों की तरह लपकते सर्बियाई सैनिक । ऐसे-ऐसे चित्रण जिनको पढ़कर मस्तिष्क सुन्न हो जाता है । लगता है जैसे सब कुछ अपनी ही आँखों के आगे घट रहा है और हम प्रत्यक्षदर्शी होकर मात्र देख रहे हैं । लगता है बस अब और नहीं । बहुत हो गया । इससे ज्यादा नहीं देखा सुना जा सकता । लेकिन ये सोचने मात्र से यह क्रम रूकता थोड़ी ना है । सेर्गेई, याद्राका, एडिना, स्त्रोकोविच, फिक्रेत, बोल्कोवेच, दुष्का, नीसा, अजर ब्लाजेविक, हसीबा, मेलिसा जैसी तमाम औरतें...जो पात्र अलग-अलग है लेकिन दुःख, दर्द व पीड़ाएँ सभी की एक है । जो एक-एक करके अपनी कहानियाँ सुनाती जाती है, हर औरत के साथ रूह कंपा देने वाली कहानियाँ जुड़ी हुई है, जिसमें पाठक अनुपस्थित होकर भी हर जगह उपस्थित लगता है । सर्बिया ने युद्ध में बोस्निया, हर्जेगोविना, क्रोएशिया के खिलाफ नागरिक और सैन्य कैदियों के 480 कैम्प बनाए थे । इन्हीं कैम्पों में स्त्रियों पर अमानुषिक अत्याचार किये गये थे । ये सभी सर्बियाई कैम्प रैप शिविरों में बदल गये थे । इनमें स्त्रियों को शारीरिक और मानसिक यातनाएँ देकर, बलात्कार करके योनियों तक सीमित करके रख दिया गया था । इतिहास के उन विद्रूप पन्नों को एक-एक करके इस किताब में खोलकर रखा गया है ।               

1992 से 1995 तक चले इस युद्ध में सयुंक्त यूगोस्लाविया से विखंडित हुए छोटे-छोटे देशों ने बहुत कुछ खोया । आम लोगों की शांति भंग हुई । नागरिक अधिकारों का हनन हुआ, विस्थापन से लाखों लोग शरणार्थी बने । लेकिन इस दौर में सबसे अधिक जघन्य हिंसा का शिकार बनी स्त्रियाँ । युद्धों के इतिहास में स्त्रियों के अस्तित्व को किस प्रकार कुचला गया था उसी का दर्दनाक ब्यौरा इस पुस्तक में प्रस्तुत किया गया है । एनिसा जब कहती है कि “मेरे शरीर पर कोई वस्त्र नहीं । वह(माँ) मुझे देखकर दहाड़े मारकर रोने लगी । मैं निर्वस्त्र नि:सहाय, घायल और अपमानित माँ ने कपड़े पहनाये, सहारा दिया, उन्होंने योनि को काट-कूट दिया था, माँ गर्म पानी से मुझे धोती जाती और कहती जाती, ‘जास्तो सी रोदेन काओ जेना ! दा उमरिएति दा उमरिएति’ (तू लड़की होकर क्यों पैदा हुई ! मर जा तू, मर जा )”[2]

 “मैं गिनती ही भूल गयी कि उन्होंने कितनी बार मुझसे बलात्कार किया । होटल के सारे कमरों में ताले लगे रहते, वे खिड़की के रास्ते हमें रोटी फैंकते, जिसे हमें दाँतों से पकड़ना पड़ता, क्योंकि हमारे हाथ तो पीछे बंधे रहते । सिर्फ बलात्कार के वक्त ही हमारे हाथ खोले जाते । हमें समय का ज्ञान भूल गया । हमारी देह को सिगरेट से जलाया जाता, जीभ पर चाकू चलाकर मांस का टुकड़ा काट लिया जाता । हममें से अधिकांश औरतें न बोलती थीं, न रोती थीं । कुछ ने अपनी जान ले ली और कई तो दर्द और भूख से मर गयी । कुछ औरतों का सात से नौ घंटे के बीच नौ-दस बार बलात्कार हुआ ।”[3] ऐसे घृणित प्रसंग जिसमें से किसको छोड़ा जाए और क्या-क्या लिखा जाएँ? कितनी अमानवीय यातनाएँ उन स्त्रियों ने सहन की थी । अपमान और हिंसा सहन करते-करते वे खुद से घृणा करने लगती है। लेकिन फिर भी अपराजित होकर जी रही है ।

बाल्कन प्रदेश में लेखिका की मुलाकात तरह-तरह की स्त्रियों से होती है जिन्होंने युद्ध के दौरान शारीरिक और मानसिक अनेक प्रकार के दंश झेले थे । ऐसी ही एक मुलाकात यांद्रका से होती है । वह अपने साथ हुए अत्याचारों के बारे में बताती है कि “रात को सैनिक आकर हमारे दरवाजे खटखटाते, हमें बाहर बुलाते । एक रात सर्ब सेना के कमांडर एलको मेजविका ने मुझे बुलाया । मैं डर रही थी, फिर भी उसके पीछे-पीछे एक कमरे में, जहाँ छह-सात लोग बैठे थे, गयी । शब्दों से पर्याप्त अपमानित करने के बाद मेजविका ने नंगे फर्श पर लेटने को कहा और शरीर के साथ मनमानी की, ऐसा लगातार चार घंटे चलता...।”[4] सर्ब सैनिक घरों में घुसकर नकदी, आभूषण, महँगी वस्तुएँ खोजते और उनको जो भी स्त्री पसंद आती उसी को अपनी हवस का शिकार बनाते । सुन्दर, कोमल, मासूम लड़कियों को डरा-धमका कर गहने-नकदी छिनने के बाद अस्मिताविहीन व पहचानविहीन किया जाता । जिसके कारण आज भी कई स्त्रियाँ ट्रामेटिक डिसऑर्डर से जूझ रही है । इसी का शिकार है अड़तीस वर्ष की एनिसा जो 1992 में 16 में वर्ष की थी तब उसके साथ यह अत्याचार किया गया था लेकिन आज भी उसके सामने वे दुर्दिन चलचित्र की भांति चल रहे हैं । वह बताती है कि आज भी मेरे कोई साथी नहीं है, मित्रहीन हूँ । पुरुष मेरी दुनिया में हिंसा और घृणित अनुभवों का प्रतीक है । आज भी पुरुषों को देखकर ही मुझे डर लगता है, घृणा होती है और इस घृणा पर मेरा कोई नियंत्रण नहीं है ।

इस युद्ध में भीषण रक्तपात हुआ था और बीस लाख से अधिक लोग शरणार्थी हुए थे । इसमें सर्बिया का एक ही उद्देश्य था कि यहाँ के नागरिकों को ज्यादा से ज्यादा प्रताड़ित किया जाएँ जिससे वे ये जमीन और देश छोड़ कर चले जाए और उनका विस्तृत देश का सपना पूरा हो सके ।  सामूहिक हत्याएँ की गई, बलात्कार हुए, यातना शिविर बनाए गये और औरतों को एक वस्तु या साधन के रूप इस्तेमाल किया गया । युद्ध के दौरान सैनिकों का जितना क्रूरतम और वीभत्स चेहरा हो सकता है, उसे ‘देह ही देश’ में देखा जा सकता है । इसी क्रूरता का एक उदाहरण दृष्टव्य है :- “जिबा से निर्वस्त्र होने को कहा जाता, मना करने पर गला रेत देने की धमकी । लगातार बीस दिनों तक उनका बलात्कार किया जाता रहा – सामूहिक तौर पर । गर्भवती औरतों में से अधिकांश को मार दिया गया । तनाव, भूख और पिटाई से कई औरतें यूँ ही बीमार पड़ जातीं, उनकी कोख खाली करवाई जाती, इसके बाद शुरू होता उनकी कोख पर हमले का सिलसिला, जब तक वे सर्बियाई सैनिकों से गर्भ धारण नहीं कर लेतीं । किसी स्त्री के गर्भ धारण की खबर पर सर्बियाई सैनिक नाच उठते, कैम्पों में जश्न का माहौल होता।”[5] हिंसा, मारकाट, घर-घर में बलात्कृत माएँ, बहनें, बेटियाँ ऊपर से सब शांत दिखाई देता है लेकिन भीतर का इतिहास पीड़ित, लहुलुहान, रक्तरंजित है ।

इस पुस्तक में लेखिका ने युद्ध पीड़िताओं से मिलकर बहुत ही शोधपरक आकड़े एकत्रित किये है । सम्पूर्ण जरूरी आकड़ों के साथ सूक्ष्मता और व्यापकता से युद्ध के दौरान के व उसके बाद के परिदृश्यों का चित्रण किया गया है । युद्ध के बाद 1995 में स्वयंसेवी संस्थाओं, सरकारों और पश्चिमी स्त्रीवादी संगठनों ने गाँव-गाँव जाकर पीड़ितों के बयान लिए और आँकड़े एकत्रित किए । लेकिन इनकी रपटें परस्पर विरोधी और चौंकानें वाली थी । बोस्निया सरकार ने जहाँ 50,000 स्त्रियों के घर्षित होने की रिपोर्ट दी । वही ज्योनिमिर सेप्रोविच ने 30,000 व यूरोपियन यूनियन के जाँच कमिशन ने 20,000 को प्रमाणित माना वही दूसरी ओर अमेरिकी स्वयंसेवी संस्थाओं का मानना है कि “जहाँ भी युद्ध होते हैं, वहाँ बलात्कार और और यौन हिंसा के मामले होना भी स्वाभाविक ही है, यह भी कि जब बोस्नियाई और क्रोआती सैनिक सीमा पर चले गये तो पीछे से उनके घरों की स्त्रियों को सर्ब सैनिकों की टुकड़ियों ने लुभा लिया। युद्धकाल में प्रेम और यौन के आवेग के फलस्वरूप अधिकांश स्त्रियों ने सर्बों को स्वयं आमंत्रित किया और यौन सम्बन्ध बनाएँ । इन स्त्रीवादियों ने कई प्रकार के आँकड़े देकर संयुक्त राष्ट्र को सौंपी रिपोर्ट में इस तरह की प्रायोजित मौलिक कल्पनाएँ की ।”[6] इस तरह की रिपोर्टों को देखकर कई स्त्रियाँ अपनी आप बीती बताने में निरुत्साहित भी हुई होंगी । रिपोर्टों को प्रस्तुत करके लेखिका ने संगठनों की सच्चाई को प्रस्तुत किया है |

बोस्नियाई परिवारों में महीनों तक माँ-बेटियों के साथ दुराचार किये गये । फिर भी न जाने कितने ही परिवार है, जिन्होंने अपने ही पुरूषों से सच को छुपा लिया । स्त्रियाँ अन्दर ही अन्दर यातनाओं के दंश झेलती रही लेकिन अपनी आपबीती पुरुषों को नहीं बताई क्योंकि बोस्नियाई पुरुष लोग स्त्री की यौन शुचिता के संदर्भ में पितृसत्तात्मक समाजों की तरह ही कट्टर है । संदेह होने पर या प्रमाण मिलने पर त्यागने में देर नहीं करते हैं । इसीलिए सामाजिक बहिष्कार, आजीवन अविवाहित रह जाने और तलाक के भय से हजारों बोस्नियाई स्त्रिओं ने अपने साथ हुए यौन अपराधों की रिपोर्ट तक दर्ज नहीं कराई । दूसरी तरफ देखा जाए तो इस युद्ध में यौन हिंसा का शिकार सिर्फ स्त्रियाँ ही नहीं बनी बल्कि पुरूष और बच्चे भी बने । जिसका रूप तो और भी ज्यादा वीभत्स था । सैनिक शिविरों में कैदियों को आपस में अप्राकृतिक आचरण करने के लिए मजबूर किया जाता था ।                 

इस यात्रा डायरी को लिखते समय लेखिका के मन और मस्तिष्क में कितना विषाद और तनाव रहा होगा । उन त्रासदियों को अभिव्यक्त करने व शब्द देने के लिए लेखिका ने अपने संवेदनशील मन पर कितने युद्ध किये होंगे ? इसको पढ़ना ही एक गहन पीड़ा से गुजरना है तो लिखना तो कितना मुश्किल रहा होगा । इसमें इतिहासबोध को दृष्टि में रखकर सूक्ष्म से सूक्ष्म विवरणों को यथार्थ रूप में प्रस्तुत किया गया है जिससे इसमें निहित कड़वे यथार्थ से गुजरना एक मधुर त्रासदी से गुजरना है । भाषा की दृष्टि से उत्कृष्ट रचना व बीच-बीच में आने वाली शांति निकेतन की यादें, बांग्ला भाषा का प्रयोग व आत्मीय लोगों को लिखे गये पत्र इस डायरी की महती विशेषता है ।

संदर्भ:-

1.     गरिमा श्रीवास्तव,देह ही देश’(2017), राजपाल एंड संज, नई दिल्ली,,पृ. फ्लैप पेज से

2.     गरिमा श्रीवास्तव, देह ही देश’(2017), राजपाल एंड संज, नई दिल्ली, पृ. 67 

3.     वही, पृ. 107

4.     वही,पृ. 138

5.     वही, पृ.134

6.     वही, पृ. 111  

 

 

 

 



 

 

 

 

 

 

Wednesday, July 1, 2020

प्यार का दरिया


                             प्यार का दरिया
आज होम आइसोलेशन की मझधार में खड़ी हूँ सात दिन पूरे हो चुके हैं । इन सात दिनों में कई खट्टे-मीठे अनुभवों का एक नए अंदाज में सामना हुआ है । जिसमें कभी अस्पृश्यता को लेकर हुए दलित आंदोलन याद आते हैं तो कभी अंबेडकर और गाँधी जैसे व्यक्तित्व आँखों के सामने आकर खड़े हो जाते लेकिन फिर उनके ऊपर आता है प्यार का एक सोता जो सब को भूलाकर एक नए ही लोक में ले जाता है । जहाँ इन सब के लिए जगह ही नहीं है । इसमें सबसे खास है घरवालों का प्यार और उनकी जागरूकता जो नई प्रेरणा देते हुए अंदर से एक ताकत दे रहे हैं जिसको सिर्फ महसूस किया जा सकता है शब्दों का जाल उसको अभिव्यक्त करने में सक्षम नहीं है । फिर भी एक छोटी-सी कोशिश :-       
15 जून की वो मध्याह्न जब कई दिनों से अंदर ही अंदर तप रहा लावा आखिरकार बाहर निकलकर आ ही जाता है और फिर शुरू होती है आशियाने की तरफ आने की प्रक्रिया । जिसको अंतिम परिणति प्राप्त होती है 19 जून को टिकट बनने के बाद । उसके बाद भी पाँच दिन तक चलने वाली इंतजार की घड़ियाँ । आखिरकार कब वो 25 जून की सुबह होगी और कब ये फड़फड़ाता परिंदा अपने आशियाने के तरफ पलायन करेगा इसी उम्मीद के साथ समय निकल रहा था । जिसमें एक उमंग होने के बावजूद भी अंदर ही अंदर दो विरोधाभासी रूप चल रहे थे । एक तरफ बरमूडा त्रिकोण की तरह आकर्षित करने वाला घरवालों का प्यार जो बार-बार अपनी तरफ खींच रहा था तो वही दूसरी तरफ न चाहते हुए भी कहीं ना कही दबा कोरोना का डर और पढ़ने की चिंता । लेकिन बाजी तो भारी बरमूडा की ही थी । सो जैसे-तैसे करके ये पाँच दिन भी निकल गए और 25 जून का सूर्योदय हो ही गया । थोड़ी खुशी, थोड़ा उत्साह, थोड़ा रोमांच, थोड़ा आत्मविश्वास और थोड़े डर के साथ भारी सुरक्षा के इंतजाम करके के बाद दो घंटे की आसमान यात्रा और फिर जयपुर । जहाँ हैदराबाद की ठंड की बजाय राजस्थान की चिलचिलाती धूप अपने अलग ही अंदाज में स्वागत कर रही थी । राजस्थान की इस आत्मीयता को आत्मसात करके एयरपोर्ट के बाहर निकली तो पाया पापा रूपी पूरा प्यार बाहर खड़ा इंतजार कर रहा है । जिसको आत्मसात करना मेरे वश की बात नहीं थी लेकिन ह्रदय के अंदर की गहराई तक यह सोता बहता चला गया और फिर शुरू होती है चार घंटे की लंबी यात्रा जिसमें धूप, आँधी, बारिश, प्यार सब मिलकर घर की दूरियाँ घटा रहे थे ।
आखिरकार एक लंबी यात्रा के बाद आता है मेरे सपनों का घर । जहाँ आकर एक बार के लिए सारे सपने पूर्ण हो गए थे । लेकिन यहाँ आते ही शुरू होते हैं नए अनुभव और पता चलता है कि हैदराबाद से घर तक कि ये यात्रा मैं अकेले ही नहीं कर रही थी बल्कि इसमें मेरे साथ कोई अवांछित मेहमान भी आ सकता हैं जिसको सामूहिकता बहुत पसंद है । इस मेहमान से अपने आप और घरवालों को बचाने के लिए कई नए-नए काम किए गए । सारा समान बाहर रखा गया, सभी को सेनेटाईज किया गया, नहाना धोना सब हुआ तब जाकर दूर बैठाकर दूर से ही खाना दिया गया । लंबी यात्रा और थकान के कारण चार-पाँच घंटे सोने के बाद जब उठी तो देखा मेरे कमरे के दरवाजे के बाहर एक पन्ना चिपका दिया गया है जो मेरे बाहर निकलते ही मुझे मुस्कराते हुए फड़फड़ा कर कह रहा था अब तुम्हें सबने अपने आप से अलग कर दिया है लेकिन अब 14 दिन तक मैं तुम्हारे साथ हूँ । मैंने भी कह दिया तुम्हारी इस दंतुरित मुस्कान को देखकर मेरे चेहरे पर मुस्कान कभी नहीं आ सकती । मुझे नहीं चाहिए तुम्हारा साथ ।
अब मेरे मना करने के बाद भी शुरू होती है एक लंबी विरोधाभासी प्रक्रिया । जिसमें विपरीत रूप से चलने वाली धाराएं भी कहीं ना कहीं जा कर मिल रही थी । ये कहने में बड़ा असमंजस्य पैदा करता है लेकिन वाकई में ऐसा ही हो रहा है । जिसकी मझधार आज है । सात दिन निकल चुके है और सात दिन अभी भी बाकी है । जिनके लिए आज भी एक तरफ सोच रही हूँ कि ये बढ़ते ही चले जाए और कभी खत्म ही ना हो वही दूसरी तरफ ये भी कि ये आज ही खत्म हो जाए । इस विपरीतार्थी सोच के पीछे का मूल कारण इन दिनों के अनुभव है । जिसमें इन सात दिनों ने अलग कमरा, अलग कुर्सी सब कुछ मेरा अपना बना दिया जिन पर सिर्फ और सिर्फ मेरा ही एकाधिकार है । वही दूसरी तरफ दूर से मिलने वाला खाना, उचित दूरी बनाए रखना व अस्पृश्यता जैसे कुछ प्रतिबंध भी है जिसके अहसास से ही सारे के सारे दलित आंदोलन याद आ जाते हैं । सहानुभूति व स्वानुभूति का प्रश्न आकर खड़ा हो जाता है । लेकिन इस अहसास मात्र के होते ही घरवालों के द्वारा प्यार के एक अथाह सागर में डुबो दिया जाता है जहाँ से निकालना मेरे लिए संभव नहीं है । लगता है सब का प्यार मेरे ही हिस्से में आ गया है । जिसके तरीके अलग-अलग है जिसे सिर्फ अंदर से महसूस किया जा सकता है । मेरे कुछ बोलने से पहले हर चीज मेरे सामने रख दी जाती है । वही धर्मा व अन्नू का भी कहना कि “हम तुझे अकेले नहीं छोड़ सकते, जियेंगे तो साथ, मरेंगे तो साथ” अपने आप में ही बहुत सुकून देते हैं।
कोरोना टाइम# होम आईसोलेशन#14 दिन
क्रमशः ...