Saturday, February 1, 2020

किन्नर विमर्श : तीसरी ताली के विशेष संदर्भ में


किन्नर विमर्श : तीसरी ताली के विशेष संदर्भ में

स्वाति चौधरी

वर्तमान समय विमर्शों का समय है, जिसमें स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श, अल्पसंख्यक विमर्श, वृद्ध विमर्श, पर्यावरण विमर्श, तकनीकी विमर्श, किन्नर विमर्श प्रमुख हैं । इसमें आज किन्नर विमर्श घेरों पर है, जिसमें किन्नर समुदाय को हाशिये से समाज की मुख्यधारा में लाने का प्रयास चल रहा है । इसी किन्नर समुदाय को ऊपर उठाने के लिए लिखे गए उपन्यास ‘तीसरी ताली’, ‘यमदीप’, ‘किन्नर कथा’, ‘मैं पायल’, ‘गुलाम मंडी’, ‘जिन्दगी 50-50’ महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं । इस कड़ी में चर्चित कथाकार प्रदीप सौरभ का उपन्यास ‘तीसरी ताली’ किन्नरों के जीवन पर लिखा गया बेहद लोकप्रिय और ह्रदय विदारक उपन्यास है । जिसमें समलैंगिकता, गे मूवमेंट, लिंग परिवर्तन, अप्राकृतिक यौनात्मक जीवन-शैली की सामानांतर कथाएँ रिपोर्ताज शैली में उपस्थित है । इसकी कथावस्तु दिल्ली को हाउसिंग सोसाइटी सिद्धार्थ एन्क्लेव से शुरू होती है और अनेक मोड़ लेते हुए हिंजडों के पवित्र स्थल कुवागम में जाकर समाप्त होती है ।
‘मुन्नी मोबाईल’ के बाद ‘तीसरी ताली’ लिखकर हिंदी उपन्यास जगत् में अपनी पहचान कायम करने वाले प्रदीप सौरभ कभी बंधी-बंधाई लीक पर नहीं चले । इसी लीक से हटकर लिखा गया उपन्यास है ‘तीसरी ताली’ । तीसरी ताली यानि ऐसी ताली जिसे कभी समाज में मान्यता प्रदान नहीं की गई । जिनकी दुआएँ पाने के लिए लोगों में इच्छा जरूर है, लेकिन उन्हें देखकर दूर हट जाने वाले लोगों की लम्बी जमात भी हमारे समाज में उपस्थित है । यह उभयलिंगी सामाजिक दुनिया के बीच हिंजडों, लौंडों, लौंडेबाजों और लेस्बियनों और विकृत प्रकृति की ऐसी दुनिया है जो हर शहर में मौजूद है और समाज में हाशिए पर जीवन जीती है । अलीगढ से लेकर आरा, बलिया, छपरा, देवरिया, दिल्ली से लेकर पूरे भारत में फैली यह दुनिया सामानांतर जीवन जीती है । प्रदीप सौरभ ने इसी दुनिया के उस तहखाने में झाँका है, जिसका अस्तित्व तो सब मानते हैं लेकिन जानते नहीं । यह उपन्यास उस समाज की कहानी है जिसे न तो जीने का अधिकार है न ही सभ्य समाज में रहने का । यह उपन्यास इसी हाशिये पर बसर हो रही जिन्दगी की कहानी बयाँ करता है ।
इस उपन्यास के पात्रों को अगर देखा जाए तो वे हैं गौतम साहब, आनंदी आंटी, विनीत उर्फ़ विनीता, डिम्पल, सुनयना, रेखा चितकबरी, पिंकी, रानी उर्फ़ राजा, बाबू श्याम सुन्दर, सुविमल भाई, अनिल, मंजू, फोटोग्राफर विजय । सम्पूर्ण उपन्यास इन्हीं पात्रों के साथ आगे बढ़ता है । जिसमें एक कथानक हिंजडों के जीवन को लेकर आगे बढ़ता है तो दूसरी और सामानांतर ही लेस्बियनों, लौंडेबाजों और कालगर्ल्स के धंधे की कहानियाँ भी इससे जुड़ी हुई है ।
उपन्यास का आरंभ दिल्ली के सिद्धार्थ एन्क्लेव में गौतम साहब के घर पर हिंजडों के आगमन से होता है । गौतम साहब के घर बच्चा होने की खबर मिलते ही डिम्पल अपनी मंडली के साथ उनके घर शगुन लेने के लिए जाती है; लेकिन हिजड़ों के लाख कोशिश करने के बाद भी गौतम साहब दरवाजा नहीं खोलते हैं । बिंदिया बद्दुआ देते हुए कडुआहट के साथ कहती है कि “हिंजडों को शगुन नहीं दोगे तो लल्ला हिंजड़ा निकलेगा ।”[1] लेकिन उन्हें क्या पता कि वह बच्चा तो वास्तव में हिंजड़ा ही है । आमतौर पर हिंजड़े शगुन के लिए मना ही लेते हैं । कोई उन्हें खाली हाथ भेजकर बद्दुआ नहीं लेना चाहता । लेकिन गौतम साहब के मामले में वे पसीना-पसीना हो गये लेकिन फिर भी कोई फायदा नहीं हुआ । सुनयना तो डिम्पल को यहाँ तक कह देती है कि इसके दरवाजे पर मूत देते हैं लेकिन डिम्पल मना कर देती है । वह कहती है कि “हम हिंजड़े जरूर हैं, पर हमारे भी कुछ उसूल हैं । हमारे पेट पर लात मारेगा तो भगवान भी इसे माफ़ नहीं करेगा ।”[2] लेकिन फिर भी गौतम साहब मज़बूरीवश दरवाजा नहीं खोलते क्योंकि उन्हें पता है कि घर में बेटा जरूर पैदा हुआ है लेकिन वह किसी काम का नहीं है । बच्चे का धीरे-धीरे विकास होता है लेकिन उसका पुरूषांग विकसित नहीं होता । जैविक रूप से किसी शरीर अंग का विकसित नहीं होना पूरे व्यक्तित्व को ही प्रश्नों के घेरे में डाल देता है । बच्चा पैदा होने पर ख़ुशी मनाने का हक़ उसके लिंग पर निर्भर करता है । यदि बच्चा उभयलिंगी है तो वह माँ-बाप के लिए महापाप बन जाता है । इसी उभयलिंगी पीड़ा के कारण दरवाजा न खोलकर गौतम साहब और आनंदी आंटी भी खुशी मनाने के बजाय शोक मनाते हैं ।
यह उपन्यास किन्नरों के जीवन और उनके समाज से अलगाव की कहानी को बखूबी बयाँ करता है | किस तरफ सभ्य, सुसंस्कृत लिंगवादी समाज इनको तिरस्कृत करके एक अलग जाति का दर्जा देता है। इसमें आज की बहुसंस्कृति व्यवस्था के कारण बनते नए रिश्ते, गे-क्लब, लेस्बियन, पॉप-कल्चर आदि की हकीकत को उजागर किया गया है । 21वीं सदी में आने के बावजूद भी समाज में इन्हें शिक्षा, राजनीति, आजीविका सभी में हेय दृष्टि से देखा जाता है । तीसरी योनी के प्रति समाज का दृष्टिकोण अच्छा नहीं है । जिसके कारण इनको अकेलेपन और अलगाव का शिकार होना पड़ता है ।  पैदा होते ही लिंग को देखकर ही भेदभाव शुरू कर दिया जाता है । यदि वह किन्नर है तो उसको घर में नहीं रखा जा सकता । समाज बेटा-बेटी को मान्यता देता है । शारीरिक और मानसिक रूप से विकलांग व्यक्ति को घर में रखा जा सकता है लेकिन जननांग से विकलांग व्यक्ति को समाज में नहीं रखा जा सकता । सभी चाहते हैं कि बेटी और बेटा पैदा हो । लेकिन कोई नहीं चाहता कि घर में किन्नर पैदा होने पर उसको भी बेटा या बेटी को तरह घर में रखें । गौतम साहब के भी तीन बेटियाँ पहले से होती है तो वे चाहते हैं कि बेटा पैदा हो । लेकिन विनीत के किन्नर होने पर गौतम साहब उसको लड़का बनाकर रखना चाहते हैं इसके पीछे गौतम साहब का लड़का न होने का दर्द छुपा हुआ है । वे उसको घर में रखना चाहते हैं लेकिन अंत में उनको भी समाज के आगे झुकना पड़ता है । आनंदी आंटी उनको समझाने की कोशिश करती है कि “प्रकृति की मार खाये बच्चे को पालना हँसी-मजाक नहीं है...एक-न-एक दिन बेटा हिंजडों को सौंपना ही पड़ेगा । ये दुनिया ऐसे बच्चों को स्वीकार नहीं करती । मंद बुद्धि और विकलांग बच्चों को तो समाज बर्दाश्त कर देता है लेकिन हिंजड़े को नहीं ।”[3] किसी भी घर में किन्नर बच्चे का जन्म उससे छुटकारा पाने के लिए ही होता है । अक्सर माता-पिता समाज में अपनी मान-मर्यादा बचाए रखने के लिए ऐसे बच्चों की लैंगिक विकृति छिपाकर उन्हें घर में बंद कर देते हैं ताकि उन्हें उपहास का पात्र न बनना पड़े । लेकिन उसमें बच्चे की मन:स्थिति पर कोई ध्यान नहीं देता । एक निश्चित उम्र के बाद उसकी भाव-भंगिमाओं में परिवर्तन होता है तो सब उससे दूर भागते हैं । न उसका कोई हमदर्द बनना चाहता है न ही कोई मित्र । इस समय वह खुद को असामान्य समझ कर अन्दर ही अन्दर अकेलेपन की त्रासदी को झेलता है । “समय बीतने के साथ गौतम साहब के बेटे में लड़कियों जैसे गुण पैदा होने लगे । शारीरिक बदलाव भी प्रखर हो गये । गौतम साहब यह सब देखकर चिंतित थे विनीत गौतम नाम रखा था उन्होंने अपने बेटे का । विनीत घर से बाहर निकलने में कतराने लगा । बाहर निकलता तो उसके साथ खेलने वाले बच्चे भी उससे किनारा कर लेते । वह अजीब मानसिकता से गुजर रहा था । कई-कई हफ्ते घर के अन्दर बंद रहता था ।”[4] विनीत जब इस परेशानी से छुटकारा पाने के लिए एक दिन जब स्वेच्छा से घर त्याग देता है तो कोई भी उसको ढूंढने की कोशिश नहीं करता । उसके घर में न दिखाई देने से किसी को कोई खास परेशानी नहीं होती है । उसकी गुमशुदगी की भी कोई रिपोर्ट पुलिस में नहीं दर्ज करवाई जाती । सभी विनीत के घर न लौटने से अन्दर ही अन्दर खुश है । “घर के और सदस्यों को उसकी अनुपस्थिति से कोई फर्क नहीं पड़ रहा था । शायद मन ही मन यह मना रहे थे कि विनीत घर न लौटे तो अच्छा हो । गौतम साहब विनीत को घर में रखने और समाज में जूझने के अपने फैसले पर अफ़सोस जता रहे थे । इसी के चलते उसकी खोज-खबर भी नहीं ली गई ।”[5]
स्वतंत्रता के अधिकार के तहत हम स्वतंत्र है और अपनी इच्छा से हर काम कर सकते हैं । शिक्षा का अधिकार भी हमें प्राप्त है लेकिन फिर भी हिंजडों को शिक्षा के अधिकार से वंचित रखा गया है । आज भी वे अपनी पुरानी परम्परा के अनुसार नाच-गाकर ही अपनी आजीविका चलाते हैं । जेंडर के स्पष्ट न होने के कारण वे अपनी पूरी शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकते । “स्कूल में जेंडर स्पष्ट न होने के चलते जब उसे दाखिला नहीं मिला था तो गौतम साहब ने उसे दिल्ली के मशहूर शहनाज ब्यूटीशियन इंस्टीटयूट से ट्रेनिंग दिला दी थी ।”[6] इसी तरह आनंदी आंटी भी निकिता को पढ़ाना चाहती है लेकिन जब छठी कक्षा में दाखिले की बारी आई तो उनके सामने धर्मसंकट खड़ा होता है कि निकिता को लड़कों के स्कूल में दाखिला दिलाए या फिर लड़कियों के स्कूल में । दोनों ही उसको स्वीकारने के लिए तैयार नहीं थे ।उन्हें दोनों जगह से एक ही जवाब मिला कि जेंडर स्पष्ट न होने के कारण हम दाखिला नहीं दे सकते हैं... यह स्कूल सामान्य बच्चों के लिए है, बीच वाले बच्चों को दाखिला देने से स्कूल का माहौल ख़राब हो जाता है । आनंदी आंटी ने हर संभव कोशिश की, लेकिन निकिता को दाखिला नहीं मिला ।”[7]
किन्नरों के जीवन से जुड़े हर एक पहलू को ईमानदारी के साथ इस उपन्यास में प्रस्तुत किया गया है । भूख और बेरोजगारी के कारण अनेक व्यक्ति नकली हिंजड़े बनकर भी पैसे कमाते हैं । कोई काम-धंधा न मिलने के कारण वे मजबूरी वश हिंजड़े बनते हैं । “खाली इलाकों में बेरोजगार, गरीब और कंजर जाति की लडकियाँ हिंजड़ा बनकर नाच-गाकर बधाईयाँ वसूल रही थीं । बेरोजगारों को इस धंधे से अच्छी कमाई हो रही थी । कई बार गोपाल ने ऐसे लोगों को गद्दी पर बैठने की कोशिश की थी, लेकिन उन्होंने यह कहकर मना कर दिया था कि वे हिंजड़े नहीं है मज़बूरी में हिंजड़े बने है । पढ़े-लिखे हैं नौकरी और दूसरा काम-धंधा मिलने पर वे इस काम को छोड़ देंगे ।”[8]
हिंजड़े भी आम आदमी की तरह समाज में रहना चाहते हैं । प्रत्येक मनुष्य की तरह उनकी भी अपनी आकांक्षायें होती है । उनमें भी विवाह करके सुचारू रूप से जीवनयापन करने की इच्छा होती है । लेकिन हमारा यह सभ्य समाज उन्हें अपने घर-परिवार में रहने की इजाजत नहीं देता । जब किशन-बाबी गाँव में आकर साथ रहने लगते है तो गाँव के लोग कहते हैं कि गाँव में हिंजड़ा रहेगा तो गाँव का माहौल ख़राब हो जायेगा । क्या एक हिंजडे का घर में रहना गाँव का माहौल ख़राब कर देता है ? किसन कहता भी है “हिंजड़े कोई हिंसक जानवर नहीं हैं, जो गाँव में रहेंगे तो गाँव को मारकर खा जायेंगे । उन्हें भी भगवान ने ही बनाया है ।तुम लोगों की तरह वे हुक्का गुड़गुड़ाते और ताश पिटते नहीं बैठे रहते । तुम्हारी जनानियाँ गोरू और खेत में काम नहीं करें तो भूखे मर जाओ ।हिंजड़े मेहनत करते हैं । नाच-गाकर कमाते हैं । दूसरों के लिए दुआएँ माँगते हैं । असल में तुम लोगों का मेहनत से बैर हो गया है ।[9]
जीवन की गाड़ी के पहिए को आगे बढ़ाने के लिए कुछ न कुछ काम करना पड़ता है । चाहे वह समाज को रुचिकर हो या न हो । किन्नर समुदाय के कार्यों को अगर देखा जाये तो पहले किन्नरों का कार्य नाचने-गाने और बधाईयाँ देने का था जो कमोवेश रूप में आज भी चल रहा है; लेकिन आज हिंजड़ा समुदाय आर्थिक, सामाजिक स्थिति के कारण भीख मांगने तथा वेश्यावृति करने के लिए अभिशप्त है । उचित रोजगार न मिलने के कारण इनकी रुचि सेक्स धंधों में बढ़ रही है । पिंकी, सुनयना, रेखा चितकबरी ये सभी इन्हीं धंधों में लगी हुई थी । “वह लम्बे समय से समलैंगिक लड़कों और हिंजडियों की तलाश में लगी हुई थी । बाजार में ग्राहक लड़कियों की जगह लौंडे माँग रहे थे । लौंडे लड़कियों की तुलना में सस्ते में भी उपलब्ध थे ।”[10]
आर्थिक विषमता के चलते किन्नरों के कार्य कलापों पर भी लेखक ने प्रयास डाला है जिसमें उनको भीख तक मांगनी पड़ती है यथा- “मैं मर्द रहूँ, औरत रहूँ या फिर हिजड़ा बन जाऊं, इससे किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता, पेट की आग तो न जाने बड़े बड़ों को क्या-क्या बना देती है ।”[11]
             हिजड़ा समुदाय में डेरे, गद्दी आदि का चित्रण इस उपन्यास में किया गया है । राजा और मंजू की कहानी जो दिल दहला देने वाली है । राजा और मंजू द्वारा आपस में प्रेम करने पर डिम्पल राजा के साथ क्रूरता का व्यवहार करती है । जिसका उसे आजीवन पछतावा होता है जो किन्नर समाज की मानवीय संवेदनाओं की अभिव्यक्ति भी करता है -“दूसरी मंडलियों के लोग जेल से छूटने पर डिम्पल को बधाई देने आ रहे थे, लेकिन डिम्पल अंदर-ही-अंदर अपने किये पर दुखी रहती । उसके चेहरे की रौनक उड़ चुकी थी । उसके अंदर एक अचीन्हा अपराध-बोध घर कर चुका था । वह सोचती कि जिसे उसने अपनी बेटी की तरह पाला है, उसे ही इतनी बड़ी सजा दी । राजा के साथ शादी कर देती तो वह छोटी न हो जाती ।”[12] इस प्रकार से वे भी मानवीय रिश्तों से सरोबार रहते है, उनकों भी वही अनुभव, सुख-दुःख महसूस होते है जो अन्य सामान्य व्यक्तियों को । एक ओर उनमें गद्दियों को लेकर जो घमासान होता रहता है उसको दिखाया है तो दूसरी ओर किन्नर समुदाय की विकृतियों को भी दर्शाया गया है । आपसी गुटबाजी, फर्जी किन्नरों की समस्या, आदि को बखूबी चित्रण किया गया है ।
             इसमें लेखक ने जितनी कुशलता के साथ हिंजड़ों की दुनिया को रेखांकित किया है उतनी ही कुशलता के साथ गे, लेस्बियन व होमो सेक्सुअल की दुनिया का भी चित्रण किया है । जिसमें किन्नरों के कथानक के साथ-साथ समाज के उस दुसरे रूप का भी परिचय मिलता रहता है जो कि हमारे समाज की एक नंगी सच्चाई है । जिसमें आज के बहुसंस्कृति व्यवस्था के कारण बनते नए रिश्ते कालगर्ल्स रैकेट, गे लोगों की दुनिया, लेस्बियन, आधुनिकतावादी व्यवस्था की देन चकलाघर, पॉप कल्चर की हकीकत को प्रस्तुत किया गया है । जो कि आज के आज के समय की सबसे बड़ी हकीकत है । विश्व की आर्थिक मंदी को झेलते वेश्यालयों का चित्रण भी इसमें किया गया है । अन्य धंधों की तरह वेश्यालय भी एक धंधा बन गया है । विश्व व्यापी आर्थिक मंदी का प्रभाव उन पर भी पड़ रहा है क्योंकि पैसों की कमी के कारण दुनिया भर के लोगों ने अपनी अय्याशी कम कर दी है । इस धंधे को आगे बढ़ाने के लिए ऑफर और विज्ञापनों का भी प्रयोग किया जा रहा है । “[13] बैंकाक से लेकर बर्लिन तक के वेश्याघर मंदी की मार झेल रहे थे । ग्राहकों को तमाम तरह के ऑफर दिए जा रहे थे । बर्लिन के एक चकलाघर में विज्ञापन लगा -98 यूरो में छह घंटे सेक्स (अगर आप कर सकते हैं तो), साथ में सोना बाथ जो भी खाना-पीना चाहे सब मुफ़्त।” इसी तरह गे का भी चित्रण किया गया है । बाबू श्यामसुंदर सिंह को तवायफों के साथ लौंडों का भी शौक था । ज्योति उनका सबसे प्रिय लौंडा था । सुमित भाई भी लौंडेबाजी के शौकीन थे । कहने को तो वे गाँधीवादी थे लेकिन औरतें उन्हें बिलकुल पसंद नहीं है । उन्होंने रति से विवाह भी किया लेकिन सिर्फ चूल्हा-चौका संभालने के लिए । अपनी शारीरिक भूख तो वे पार्टी के युवक अनिल के साथ अप्राकृतिक सम्बन्ध बनाकर ही पूरी करते हैं ।
इसमें हिंजडों के डेरे, गद्दी, डेरे के अन्दर की समस्त गतिविधियों का चित्रण करते हुए उपन्यास का अंत विजय की कहानी से होता है जो कि एक पत्रकार है । सम्पूर्ण दुनिया के सामने अन्याय की लड़ाई लड़ने और हर जोखिम उठाने का जज्बा उसमें है लेकिन एक सच वह अंत तक छुपाकर रखता है, जिसकी वजह से वह समाज में प्रतिष्ठित लोगों में गिना जाता है लेकिन अंत में वह सच्चाई को उजागर कर देता है । वह कहता है कि “दुनिया के दंश से अपने-आपको बचाने के लिए मैंने लगातार लड़ाई लड़ी और खुद को स्थापित किया । मैं नाचना-गाना नहीं, नाम कमाना चाहता था । भगवान राम के नाम को उस मिथक को झुठलाना चाहता था, जिसके कारण तीसरी योनि के लोग नाचने-गाने के लिए अभिशप्त हैं...परिवार और समाज से बेदखल हैं...।”[14]
इस प्रकार से निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि प्रदीप सौरभ ने ‘तीसरी ताली’ उपन्यास के माध्यम से हिजड़ा जीवन और संघर्षों की गहरी पड़ताल की है । न केवल हिजड़ा समुदाय बल्कि उनसे जुड़े अन्य समुदायों पर भी लेखक की गहरी दृष्टि गई है । आनंदी आंटी और गौतम साहब के लिए संतान का दुःख, मंजू और राजा के प्रेम की पीड़ा, डिम्पल का अपने किये पर पश्चाताप, शक्तिशाली राजनेताओं द्वारा जनता का शोषण, पुलिस का अमानवीय व्यवहार सम्बन्धी आदि गहन मानवीय मूल्यों की पड़ताल की गई है । लेखक का उद्धेश्य केवल समस्या पर प्रकाश डालना ही नहीं है अपितु वह इस समस्या का समाधान भी चाह रहा है । उपन्यास किन्नरों के अधिकारों की बात भी करता है । कई प्रसंग ऐसे है जिनमें किन्नर अपने अधिकारों के प्रति जागरूक होते दिखाई दे रहे है । यहाँ हिजड़ा समुदाय के समर्थन में नारे लगाना ही लेखक का उद्देश्य नहीं है, बल्कि उनकी वास्तविक स्थिति से भी हमें अवगत किया गया है । देश के किन्नर समुदाय बराबरी और सम्मानपूर्ण जीवन जीने के लिए अरसे से संघर्ष करता रहा है । काफी संघर्षों के बाद आज किन्नर समाज समाज की मुख्यधारा में अपना स्थान बना रहा है । इस समुदाय के अनेक लोगों ने भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में अपनी प्रतिभा और लगन के बल पर समाज के विभिन्न वर्गों में अपनी पहचान बनाई है । जिनमें विधायक शबनम मौसी, न्यूज एंकर पद्मिनी प्रकाश, सब-इंस्पेक्टर के. पृथिका यशिनी, जज जयिता मंडल अपने आप में एक मिसाल है ।
संदर्भ - ग्रंथ :-
1.     प्रदीप सौरभ, ‘तीसरी ताली’(2011), वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ.सं. 11   
2.     वही, पृ. सं. 11
3.     वही, पृ. सं 81
4.     वही, पृ. सं 82
5.     वही, पृ. सं. 83
6.     वही, पृ. सं. 97
7.     वही, पृ. सं 47
8.     वही, पृ. सं. 109
9.     वही, पृ. सं. 94
10. वही, पृ. सं. 78
11. वही,  पृ. सं.  34
12. वही, पृ. सं. 76
13. वही, पृ. सं. 79
14. वही, पृ. सं. 195




विशेष संदर्भ - 'साहित्य व समाज में किन्नर जीवन' पुस्तक में प्रकाशित आलेख, पृ. 107-117  

 स्वाति चौधरी

शोधार्थी, हिंदी विभाग
हैदराबाद विश्वविद्यालयहैदराबाद
मो. 9461492924
















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