Sunday, February 16, 2020

पहर दोपहर : फिल्मी दुनिया का यथार्थ




स्वाति चौधरी

                                                          

पहर दोपहर : फ़िल्मी दुनिया का यथार्थ 



असग़र वजाहत सामाजिक संचेतना से जुड़े हुए उपन्यासकार है । इन्होंने सामाजिक जीवन का यथार्थ चित्रण अपने उपन्यासों में किया है । प्रेमचंद की तरह इन्होंने भी अपने समय और समाज की विसंगतियों, विडम्बनाओं और समाज के यथार्थ स्वरूप को अपने उपन्यासों में अभिव्यक्त किया है । वजाहत जी हिंदी के उन विरले लेखकों में गिने जाते हैं जो अपने पाठकों से तारतम्यता स्थापित करके रचना को आगे बढ़ाते है । जिसके कारण पाठक और रचना के बीच जीवंत सम्बन्ध स्थापित हो जाता है । ‘पहर दोपहर’ भी इसी दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर लिखा गया उपन्यास है । यह उपन्यास 2012 में आकृति प्रकाशन शाहदरा, दिल्ली से प्रकाशित हुआ । यह आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया अत्यंत महत्त्वपूर्ण उपन्यास है, जिसमें फ़िल्मी दुनिया की अंदरूनी हकीकतों का पर्दाफास किया गया है । रंगीन जगत् के प्रति लोगों के मन में आकर्षण स्वाभाविक है परन्तु इस सुन्दरता और आकर्षण के पीछे छिपे सच को देखा जाये तो पटकथा की जिन्दगी यथार्थ जिन्दगी से कोसों दूर है । फिल्म की दुनिया पैंतरेबाजी की दुनियाँ है, शोषण की दुनिया है, नशे की दुनिया है, मदिरा और शोषण पर टिकी दुनिया है । फिर भी इस दुनिया के प्रति जनता के मन में आकर्षण है, मोह है । इन्हीं फ़िल्मी जगत् की सच्चाइयों को इस उपन्यास में परत-दर-परत उघारने की कोशिश की गई है ।

‘मैं शैली’ में लिखे गए इस उपन्यास में लेखक स्वयं असग़र नाम से ही उपस्थित रहता है और सम्पूर्ण उपन्यास लेखक के दोस्त जालिब के फ़्लैट में ही संचालित होता है । फ़िल्मों में पैसों की संभावना को देखकर ही लेखक दिल्ली को छोड़कर मुंबई महानगरी की और रवाना होता है । हर आम इन्सान की तरह लेखक को भी अपनी टूटी-फूटी हालत में पैसे कमाने के लिए फ़िल्मों की दुनियाँ की बेहतरीन जिन्दगी आकर्षित करती है । इसी आकर्षण के फलस्वरूप ही वह अपने बचपन के दोस्त जालिब के घर मुबंई पहुँचता है । जालिब, असग़र का पुराना दोस्त है । जब जालिब और असग़र साथ पढ़ा करते थे । तब जालिब अपने खानदान वगैरा के बारे में बताया करता था । जालिब हैदराबाद के निजाम के प्रमुख मंत्री हश्मतयारगंज के बिगड़ैल बेटे थे । जो ऐशो-आराम से जिन्दगी गुजारते थे । जब वह साँतवी-आठवीं कक्षा में पढ़ता था तब ही उसके पास आस्टिन गाड़ी और रखैल दोनों थी । “रईसों के बेटों की तरह जालिब की आदतें बहुत बिगड़ी हुई थीं । जब वह आठवीं में पढ़ता था तब ही उसके पास ‘आस्टिन’ गाड़ी और रखैल थी । आवारा लोगों की तरह एक फौज उसके साथ रहती थी । चूँकि सबसे बड़ा बेटा था और माँ उसे बेतहाशा चाहती थी इसीलिए जितना बिगड़ना संभव हो सकता है उतना वह बिगड़ चुका था” ।[1] लेकिन यह अय्याशी ज्यादा दिन नहीं चली और जब जालिब सोलह साल का था तब ही हश्मतयारगंज का इंतकाल हो गया । उनके परिवार की हालत इतनी बिगड़ गई कि खाने तक के लाले पड़ गए तब उन्होंने मुम्बई का रूख लिया था । यह सम्पूर्ण कहानी उपन्यास के प्रारंभ होने से पूर्व की है । उपन्यास की वास्तविक शुरुआत लेखक के मुम्बई पहुँचने से होती है । जालिब के घर आने पर लेखक की मुलाकात सुल्ताना, मिर्जा साहब, मानस, हैदर साहब, पिया, रतनसेन, नीना, जसिया आदि से होती है ।ये फ़िल्मी दुनिया के यथार्थ चेहरे है । इन खुबसूरत चेहरों के पीछे छिपे यथार्थ और बदसूरती से लेखक वाकिफ होता है । यहाँ पर ही जालिब के फ़्लैट में रहकर ही उसे फ़िल्मी दुनिया के यथार्थ का पता चलता है । रंगीन दुनिया के पीछे छिपी बेरंगी से उसका साक्षात्कार होता है । इन्हीं फ़िल्मी जगत् की कड़ी सच्चाईयों को लेखक ने इस उपन्यास के माध्यम से हमारे सामने प्रस्तुत किया है ।

फ़िल्मी दुनिया की चकाचौंध भरी जिन्दगी पैसे और प्रतिष्ठा की झूठी शान पर टिकी हुई है । यह दुनिया मौज और मस्ती की दुनिया है । यहाँ की दुनिया का नैरन्तर्य पीने और पिलाने में है । पीने और पिलाने के बिना तो फ़िल्मी दुनियाँ ही अधूरी है । स्त्री हो या पुरुष सब नशे में चूर है । जालिब की सुबह की शुरुआत दारू से होती है । रात का नशा उतारने के लिए उन्हें सुबह-सुबह फिर से दारू के नशे की जरूरत होती है । “जालिब शुरू होने के बाद रुका नहीं । एक ‘पेग’ के बाद उसने दूसरा और दुसरे के बाद तीसरा और चौथा बनाया । मुझे यह समझते देर नहीं लगी कि वह दिन भर पीता है और नशे में रहता है ।”[2] फ़िल्मी जगत् में प्रतिष्ठित हस्तियाँ भी नशे में बर्बाद हो जाती है । ‘देवी’ भी पहले इतनी टेलेंटेड थी कि लोग उसे नयी स्मिता पाटिल कहा करते थे लेकिन चरस गांजे ने उसे बर्बाद कर दिया । “लेकिन चरस गांजे ने उसे बर्बाद कर दिया । तुमने तो कल ही देखा होगा हड्डियाँ निकल आयी हैं और आँखों के चारों तरफ काले-काले गोले खिंच गए हैं ।”[3] सुल्ताना भी जब जालिब के घर आती है तो व्हस्की की बोतल साथ लाती है मिर्जा भी आते ही सबसे पहले अपनी बोतल ही देखते हैं । “अब उन पर नशा असर कर रहा था । उनके पीने की रफ्तार भी खासी तेज थी । दो-तीन के बाद वे सोडा भी नहीं मिला रही थी सिर्फ बर्फ के साथ पी रही थी ।”[4] संगीत निर्देशक मानस की भी नशीले पदार्थों के उपभोग के कारण असमय मृत्यु होती है ।

फ़िल्मी दुनिया में मानवीय मूल्यों की गुंजाइश नाम मात्र के लिए भी नहीं है । अभिनेत्रियों की हालत तो बहुत ही गयी गुजरी है । धन और प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए उन्हें अपना सर्वस्व खोना पड़ता है । अभिनेत्रियों की वास्तविक स्थिति का चित्रण पिया, शकुन्तला, देवी, सुल्ताना आदि स्त्री पात्रों के माध्यम से किया गया है । यह फ़िल्मी दुनिया ग्लैमर की दुनिया है । फ़िल्मी नायिका बनने के लिए पिया और शकुन्तला अपनी पूरी जिन्दगी स्वाहा कर देती है ‘ऐड’ वाले पिया को ऑफर पर ऑफर देकर मुम्बई लाए थे और ऑफर के बहाने ही उसे बदनाम किया गया । ‘ऐड’वालों ने काम तो दिया लेकिन शर्तों पर...शर्तों के कारण ही पिया एक हाथ से दुसरे और दुसरे से तीसरे हाथ में चक्कर लगाती रही । वह फ़िल्मी दुनिया में भी जाती है लेकिन फ़िल्मी दुनिया ऐड वालों से ज्यादा शरीफ नहीं होती । वहाँ पर भी उसकी वही हालत होती है । “हुआ यह यार कि जल्दी ही फिल्म वालों और ‘ऐड’ वालों को यह पता चल गया कि लड़की उनके ‘रहमोकरम’ पर पड़ी हुई है । पिया कि इज्जत उतनी भी नहीं रही जितनी रंडियों की होती है ।”[5] प्रसिद्ध निर्देशक धर्मवीर से शादी होने के बाद भी वह पतिव्रता नहीं रहती और धीरू से अलग रहने लग जाती है । पति धीरू के मरने के बाद भी वह निर्देशक रतनसेन की भोगपिपासा का शिकार बनती है । अंत में जब रतनसेन द्वारा फिल्मों में काम नहीं मिलता तब एन. आर. सर्जन से शादी कर लेती है ।

इस प्रकार स्पष्ठ है कि फ़िल्मी दुनियाँ की यह वास्तविक स्थिति है जहाँ मानवीय मूल्यों और रिश्तों नातों का कोई महत्त्व नहीं है । अभिनेत्री बनने की इच्छा में शकुन्तला को भी न जाने कितने लोगों से हमबिस्तरी करनी पड़ती है । जब शकुंतला को घर में रखने की बात आती है तो जालिब लेखक से कहता है कि “क्या बुरा है प्यारे । यहाँ रहेगी तुम भी बहती गंगा में हाथ धो लेना ।”[6] अभिनेत्रियों के पास जब तक सौन्दर्य है तब तक ही उनके पास नाम, यश और प्रतिष्ठा है । जब जालिब के घर पर पुरानी हिरोइन सुल्ताना से लेखक की मुलाकात होती है तो पता चलता है कि सुल्ताना के उम्र और सौन्दर्य के घटने के साथ ही उसकी पुरानी शान भी घट गई है । “यही सुल्ताना थी । उनकी उम्र का अंदाजा लगाना आसान न था । भारी मेकअप और कीमती हीरे जड़े जेवरात से इस तरह सजी थी जैसे दुल्हन।”[7] पिया के लिए भी जालिब कहता है कि पिया खुबसूरत है यही उसकी बदनसीबी है, इतनी खुबसूरत न होती तो ये हाल नहीं होता । इस प्रकार आज हमारे समाज में फ़िल्मी सितारों को प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा मिल रही है, लेकिन वहाँ की जिन्दगी किस हद तक गिरी हुई है इस यथार्थ को साधारण जनता नहीं देख सकती । एक फिल्म को बनकर आने में न जाने कितने लोगों को दुःख, दर्द झेलने पड़ते हैं । फिल्म बनकर आने के पीछे की सम्पूर्ण यथार्थ स्थिति का चित्रण उपन्यास में किया गया है ।

          फ़िल्मी निर्देशक, संगीत निर्देशक या पटकथा लेखक सभी के जीवन का अंतिम अर्थ मदिरा और जिस्म ही है । जिसमें पटकथा लेखक जालिब, संगीत निर्देशक मानस दा व फिल्म निर्देशक रतनसेन को देखा जा सकता है । शादीशुदा जीवन होने के बावजूद भी सभी पर-स्त्री संबंध रखते हैं । नशे के साथ-साथ स्त्रियों की जिन्दगी से खिलवाड़ करना उनके लिए आम बात है । पटकथा लेखक जालिब शादीशुदा है, घर में पत्नी नीना है, दो बच्चे है लेकिन फिर भी उसके लिए पर-स्त्री सम्बन्ध आमबात है । नशे में चूर रहना और पर-स्त्रियों से नाजायज सम्बन्ध उसके लिए साधारण चीज है । “छिछोरी किस्म की लड़कियों को फ़्लैट पर लाने का किस्सा कोई नया नहीं था । यह तो जालिब अक्सर करता रहता था । कभी-कभी तो अहमद बेचारा उसी कमरे में होता था जिस कमरे में जालिब लड़की से हमबिस्तरी करता था । वह चुपचाप लेटे रहकर यह जाहिर करता रहता था कि सो रहा है ।”[8] काम की तलाश में आनेवाली युवतियों को भी जाल में फँसाना उसके लिए आमबात थी । जयपुर से आए हुए मनोहर मीना और उसकी ममेरी बहन शकुन्तला को भी उसने फँसा लिया था । जब मनोहर शकुन्तला को जालिब के घर छोड़ कर जाता है तो पीछे से जालिब उसके साथ भी सम्भोग करता है । “एक दिन मौका पाकर जालिब ने ममेरी बहन के साथ ‘मुँह काला’ कर लिया । जालिब संभोग करने को ‘मुँह काला’ करना कहता था ।”[9] जालिब के लिए पत्नी और बच्चों के रिश्तों की कोई अहमियत नहीं है । जालिब के अनैतिक संबंधों के कारण उनके पारिवारिक रिश्ते भी बनते-बिगड़ते और टूटते हैं । नीना के पैसों से ही वह शराब पीता है और बच्चों का खर्चा चलाता है । लेकिन फिर भी किसी भी तरह का पश्चाताप उसके मन में नहीं है । जालिब से संबंधों से वाकिफ होकर नीना ही अपनी बहन के पास पुणे चली जाती है लेकिन फिर भी जालिब की जिन्दगी में कोई सुधार नहीं होता । मानस की भी जिन्दगी ऐसी ही है । वह भी नशा करता है और शादीशुदा होने के बावजूद अड्डों की तलाश में लगा रहता है । अड्डों पर जाना उसके लिए आमबात है । लड़कियाँ भी उसकी आदतों से वाकिफ होती है जब वह मीना के पास जाता है तो वह जाते ही कहती है “मैं जानती हूँ तुम इसी तरह आते हो और आते ही दारू माँगते हो । इसलिए मैं हमेशा दारू रखती हूँ ।”[10] नशे के कारण अंत में उसकी मृत्यु भी हो जाती है । रतनसेन भी पिया के साथ चक्कर चलाता रहता है । इस प्रकार स्पष्ठ है कि यह फ़िल्मी दुनिया की वास्तविक सच्चाई है जिसमें सभी का नैतिक पतन हो चुका है उनके लिए अनैतिक कार्य करना आमबात है । पटकथा लेखक हो या संगीत निर्देशक या नायक या अभिनेत्री सभी इस जाल में ऐसे फँसे हुए कि इससे बाहर निकलना उनके वश की बात नहीं है । इन्हीं चकाचौंध वाली फ़िल्मी दुनिया की वास्तविकता का चित्रण इस उपन्यास में किया गया है ।

          जसिया जैसे लोग फिल्मों में रोल लेने के लिए फिल्म प्रोड्यूसरों के आगे पीछे घूमते रहते हैं । जिसका यथार्थ चित्रण इस उपन्यास में किया गया है । फ़िल्मी दुनिया में सब नाम, शोहरत, पैसे के पीछे भागते रहते हैं । सभी में आपसी होड़, अस्तित्व की तड़प, प्रतियोगिता और कूटनीति का चक्र चलता रहता है । जितना ज्यादा काम करोगें उतने ही अधिक पैसे मिलेंगे । इसी वजह से धीरू की भी मौत हो जाती है । जालिब फ़िल्मी जगत् की वास्तविकता के सम्बन्ध में लेखक को बताता है । “जैसे यहाँ सब मरते हैं । सबसे पहली बात रात-दिन काम । अब रात-दिन काम क्यों ? तो यार ये ‘इंडस्ट्री’ है। ‘शीट्स’ होती है जितना जल्दी काम करोगे उतना पैसा मिलेगा ।”[11] इस फ़िल्मी दुनिया में सफलता प्राप्त करने के लिए पहले चापलूसी, चाटुकारिता और दूसरों का मोहताज बनने कला सीखनी पड़ती है । जिसकों ये सब काम नहीं आते वह इसमें नहीं टिक सकता । काम की तलाश में आया हुआ लेखक भी फ़िल्मी जगत् की वास्तविकता को देखकर मुम्बई छोड़ने को विवश होता है ।

          इस प्रकार उपन्यास में असग़र वजाहत ने एक पटकथा लेखक जालिब की जिन्दगी का खुलासा करके फ़िल्मी दुनिया के प्रत्येक क्षेत्र में कार्यरत प्रतिष्ठा प्राप्त लोगों की निकटतम जिन्दगी की सच्ची तस्वीर खींची है । मुम्बई की धूम-मचाती फ़िल्मी दुनिया के हर एक पहलू को इसमें प्रस्तुत किया गया है । फ़िल्मी दुनिया की हकीकत से वास्ता कराना ही इस उपन्यास का मुख्य उद्देश्य है । इसमें फिल्मी दुनिया के लटकों-झटकों के अलावा भी कई ऐसे प्रसंग हैं, जो वहाँ होने वाली घटनाओं को सामने लाते हैं, चमकीली दुनिया के काले सच को उघाड़ते हैं । जैसे जालिब के घर पर जब शकुन और मनोहर क़ब्ज़ा करने की सोचते हैं तो वह किस तरह अंडरवर्ल्ड का सहारा लेता है । इसके अलावा प्रोड्यूसर से पैसे वसूलने के लिए अंडरवर्ल्ड की मदद ली जाती है, इसकी ओर भी उपन्यास में संकेत किया गया है । यह उपन्यास साधारण भाषा में फ़िल्मी जीवन और जगत् के जटिल संबंधों को उजागर करता है। मानवमन की गहराईयों में उतर कर कलात्मक तरीके से पात्रों और उनकी गतिविधियों का उद्घाटन करता है।




संदर्भ ग्रन्थ सूची :-

1. वजाहत, असग़र, ‘पहर दोपहर’ (2012), ‘आकृति प्रकाशन’,बी-32, कैलाश कालोनी, ईस्ट ज्योति नगर के पीछे, शाहदरा, नई दिल्ली,पृ. 06

2. वही, पृ. 26

3. वही, पृ. 31

4. वही, पृ. 39

5. वही, पृ. 29

6. वही, पृ. 146

7. वही, पृ. 35

8. वही, पृ. 29

9. वही, पृ. 146

10. वही, पृ. 30

11. वही, पृ. 30




























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