स्वाति चौधरी, पीएच. डी. शोधार्थी, हिंदी विभाग, हैदराबाद विश्वविद्यालय, हैदराबाद
(प्रकाशित आलेख, स्त्रीकाल पत्रिका, 2019 अंक- 31, ISSN : 2394-093X, पेज-27-29
अम्बेडकरवादी
विचारधारा और हिंदी दलित कविता
हिंदी
दलित कविता मध्यकाल के निर्गुण संत रैदास और कबीर से होती हुई ‘हीराडोम’ और ‘अछूतानन्द’
तक आयी है । कबीर, रैदास, दादू, चोखामेला, नानक, नामदेव जैसे संतों ने बहुत पहले समाज
के शोषित, उपेक्षित, पीड़ित और अपमानित वर्ग को अधिकार दिलाने के लिए संघर्ष किया
था वही परम्परा आज दलित कविता में दिखाई देती है ।जिस पररैदास से लेकर आज तक अनेक
व्यक्तियों का प्रभाव पड़ा है । इसमें भी मूलरूप से दलित साहित्य के प्रेरणास्रोत
अम्बेडकर ही है । उन्होंने ही सबसे पहले दलितों को अभिव्यक्ति प्रदान करने के लिए ‘जनता’
और‘मूकनायक’ साप्ताहिक पत्र निकाले थे । तब से ही महाराष्ट्र में दलित साहित्य
अस्तित्त्व में आया और आज दलित साहित्य मराठी साहित्य की मुख्य धारा है । मराठी
दलित साहित्यकार डॉ. गंगाधर पंतावणे ने लिखा है कि “हमारे साहित्य की प्रेरणा केवल
डॉ. बाबा साहेब अम्बेडकर और उनकी क्रांतिकारी विचारधारा है, इसमें कोई संदेह नहीं।कई
समालोचक दलित साहित्य का रिश्ता कभी मार्क्सवाद से, कभी हिन्दुवाद से या कभी
नीग्रो साहित्य से जोड़ते हैं। मैं स्पष्ट करना चाहता हूँ कि हमारे दलित साहित्य की
प्रेरणा न हिन्दूवाद है, न नीग्रो साहित्य है। दलित साहित्य की प्रेरणा केवल
अम्बेडकरवाद है । हाँ; एक बात अवश्य माननी होगी कि नीग्रो साहित्य तथा दलित
साहित्य में प्रतिबिम्बित व्यथा,वेदना मानवीय आक्रोश है । लेकिन नीग्रो अछूत नहीं
थे और नहीं हैं। भारतीय दलित अछूत था और अछूत है छुआछुत तो भारतीय जीवन की पहचान
है । बाबा साहब ने इस संदर्भ में एक नए शब्द की खोज की थी । उन्होंने कहा भारत में
अस्पृश्यता गहरी और भीषण है । उसे धर्म का आधार है । अछूतपन गुलामी से भी कहीं
ज्यादा क्रूर है।”[1]
डॉ.
अम्बेडकर ने वर्ण व्यवस्था को नकारकर नारी को शिक्षा और समानता का अधिकार प्रदान
किया । उनके चिंतन पर बुद्ध, कबीर और ज्योतिबा फूले आदि क्रान्तिकारी महापुरुषों का
बहुत अधिक प्रभाव था । डॉ. अम्बेडकर का चिंतन बुद्ध, कबीर और फुले के विचारों का
घोल है, जिसमें बुद्ध का गाम्भीर्य, कबीर का साहस और फूले की जीवटता का समावेश है ।
जिससे हिंदी दलित साहित्य पर उनका बहुत गहरा प्रभाव पड़ा है । उनके विचारों का
प्रभाव हिंदी दलित कविता में निम्न रूपों में देखा जा सकता है :-
हिंदी
दलित कविता पर अम्बेडकर के विचार :-
जाति
प्रथा और समानता संबंधी विचार :-
वर्षों
से जाति व्यवस्था ने दलित समाज का शोषण किया और दलितों पर कई पीड़ादायक प्रतिबंध
लगाए गये । दुर्बलता, दरिद्रता और अज्ञानता के कारण दलित समाज निरंतर लूटा गया है ।
उच्च वर्गों के द्वारा निम्न वर्ग की जातियों का शोषण किया जाता रहा है।उन्हें
सदियों से अस्पृश्य समझा गया । इसी जाति प्रथा के उन्मूलन के लिए अम्बेडकर ने अनेक
प्रयास किए वे लिखते हैं कि “हिन्दूओं की नीति और आचार पर जाति
प्रथा का प्रभाव अत्यधिक शोचनीय है । जाति प्रथा ने जन चेतना को नष्ट कर दिया है ।
उसने सार्वजानिक धर्मार्थ की भावना को भी नष्ट कर दिया है । जाति प्रथा के कारण
किसी भी विषय पर सार्वजनिक सहमति का होना अनिवार्य हो गया है । उनकी निष्ठा अपनी जाति
तक सीमित है। गुणों का आधार भी जाति है, और नैतिकता का आधार भी जाति ही है । गुणों
की कोई सराहना नहीं है, जरूरतमंद के लिए कोई मदद नहीं है, दुखियों की पुकार का कोई
जवाब नही है ।”[2]
अम्बेडकर ने अस्पृश्यता का भी विरोध किया । उन्होंने संविधान में नागरिकों के
मूलभूत अधिकारों में अस्पृश्यता के सम्बन्ध में एक धारा का भी प्रावधान किया ।
अम्बेडकर के जाति सम्बन्धी विचारों के सम्बन्ध में जयप्रकाश कर्दम लिखते हैं कि “डॉ.अम्बेडकर
का सपना एक सुदृढ़ समुन्नत और सुखी,संपन्न राष्ट्र का सपना था जिसमें सब समान हो तथा
सब परस्पर प्रेम, सहयोग और बंधुता के साथ रहें । कोई छोटा-बड़ा, ऊँचा-नीचा या सछुत-अछूत
न हो । इसके लिए उन्होंने जाति विहीन और वर्गविहीन समाज की स्थापना की परिकल्पना
की । इस तरह के समाज की रचना कैसे हो, यही उनके संग्रह चिंतन और सृजन का मूल विषय और
आधार है । समाज, राजनीति, धर्म कोई ऐसा क्षेत्र नहीं जिसमें अम्बेडकर ने विचार एवं
कार्य नहीं किया हो । वैचारिक रूप से वह राजनीतिक क्षेत्र में लोकतंत्र के,
सामाजिक क्षेत्र में मानवतावाद के, आर्थिक क्षेत्र में समाजवाद के, धार्मिक
क्षेत्र में बुद्धिवाद के तथा दार्शनिक क्षेत्र में अंतिम और अनात्मवाद के पक्षधर रहें।”[3]
हिंदी के दलित साहित्यकार भी इस जाति व्यवस्था के विरुद्ध लिख रहे हैं । जैसे
माताप्रसाद लिखते हैं कि :-
“मनुष
न पैदा होत यहाँ, जाति पेट से आय ।
कंटक
बन वह गड़ी रहि, मित्र कष्ट पाय ।।”[4]
मलखान
सिंह की ‘सुनो ब्राह्मण’ कविता में भी वर्ण-व्यवस्था, ब्राह्मणवादी व सामंत-व्यवस्था
पर तीखा प्रहार किया गया है । सीधे-सीधे संवादात्मक शैली में यह कविता अपनी पूरीऊर्जा
के साथ दलित चेतना को बेबाकी से प्रस्तुत करती है ।
सुनो
ब्राह्मण ।
हमारी दासता का सफ़र ।
तुम्हारे जन्म से शुरू होता है
और इसके साथ अंत भी
तुम्हारे
अंत के साथ होगी ।
स्त्रियों
के सम्बन्ध में विचार:-
स्त्री
और पुरुष दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू माने जाते हैं । दोनों एक-दुसरे पर अन्योयाश्रित
भी है फिर भी पुरुष वर्ग स्त्री को सेकंड सेक्स मानता है। देवी स्वरूप मानकर उसका निरंतर
शोषण करता है । इसी कारण स्त्री को दलित ही माना जाता है। जिससे दलित स्त्री दोहरे
शोषण को सहन करती है ।एक स्त्रीऔर दूसरी दलित दोनों तरह से ही उसका शोषण किया जाता
है । स्त्री दलित वर्ग की महिलाओं की दशा अत्यंत ही दयनीय है । दलित हिंदी कविता
में भी स्त्रियों की सभी स्थितियों को आधार बनाकरअनेककविताएँ लिखी गयी है । मैला उठाने वाली दलित स्त्रियों की स्थिति का
चित्रण करते हुए कवि ओमप्रकाश वाल्मीकि लिखते हैं कि :-
“सुबह
पांच बजे\हाथ में थामे झाड़ू
घर
से निकल पड़ती है \शमेश्वरी
लोहे
की गाड़ी हाथ घकेलते हुए
खडंग-खडंग
की ,कर्कश आवाज...
...जब
तक शमेश्वरी के हाथ में
खडंग-खडंग
घिसटती लौह गाड़ी है
मेरे
देश का लोकतंत्र \एकगाली है ।”[5]
स्त्री
के उत्थान के लिए अम्बेडकर ने भी अनेक प्रयास किये । उन्होंने ‘हिन्दू कोड बिल’ के
अंतर्गत स्त्रियों को तलाक का अधिकार, सम्पति का अधिकार, बहुपत्नी प्रथा उन्मूलन
आदि के सम्बन्ध में अधिकार दिलवाए । वे स्त्री शिक्षा के प्रबल समर्थक थे । 1942
में ‘अखिल भारतीय महिला सम्मेलन’ में तीस हजार महिलाओं की सभा में अम्बेडकर ने कहा
कि– “किसी भी समाज की प्रगति का सही अंदाज स्त्रियों से हुई प्रगति से ही लगाया जा
सकता है। आप घरों से निकल कर यहाँ तक आई हो निश्चिय ही आप प्रगति के पथ पर हैं। आप
अपने पतियों के कार्यों में सहयोग करें। पति की दासी नहीं मित्र बने, बच्चे कम
पैदा करें और उन्हें अपने पैरों पर खड़े होने पर ही, उनकीराय के अनुसार उनकी शादी
करें ।”[6]
दलित हिंदी कविता में भी स्त्रियों की सभी स्थितियों को आधार बनाकर कविताएँ लिखी
गयी है ।
शिक्षाव
धर्म सम्बंधित विचार :-
दलित
वर्ग की अशिक्षा और अज्ञानता से अम्बेडकर बहुत व्यथित थे । दलित स्त्री और पुरुष
दोनों की शिक्षा का वे समर्थन करते थे । उच्चशिक्षा को भी उन्होंने अत्यंत
महत्त्वपूर्ण माना । उनका मानना था कि शिक्षा ही समाज की स्थिति सुधारने में सहायक
है । एक बार सामाजिक स्थिति सुधर गई तो सभी सामान स्तर पर आ जायेंगे । उनका नारा
हैं ‘शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करों । दलित वर्ग के उत्थान के लिए भीवे शिक्षा
को अमोघ अस्त्र मानते थे । हिंदी दलित साहित्य में भीदलित वर्ग की शिक्षा को लेकर अनेक
कवियों ने कविताएँ लिखी है । असंघोष की कविता ‘मैं दूँगा माकूल जवाब’ भी अत्यंत प्रसिद्ध
है। दलित के भीतर उफनते आक्रोश की यह कविता मानवीय संवेदनाओं को बहुत दूर तक ले
जाती है । दलितों को शिक्षा से दूर रखने के जो षड्यंत्र रचे गये उन्हीं के विरुद्ध
यह माकूल जवाब है ।
अम्बेडकर ने अपने आंदोलनों में
धर्मशास्त्रों का भी विरोध किया था। ‘मनुस्स्मृति’ की प्रतियों को भी उन्होंने
जलाया था । हिंदी दलित साहित्यकारों ने भी हिन्दू धर्म ग्रंथों के दहन की बात कही
है । डॉ. एन. सिंह अपनी कविता ‘सतह से उठते हुए’ में लिखते है कि –
“इसलिए
आप \ मेरे हाथ की कुदाल \ धर्म पर कोई नींव खोदने से पहले
कब्र
खोदेगी \ उस व्यवस्था की \ जिसके संविधान में लिखा है
तेरे
अधिकार सिर्फ कर्म में है \ श्रम में है \ फल पर तेरा अधिकार नहीं ।”[7]
निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि डॉ.
अम्बेडकर के विचार दलित वर्ग के उत्थान में मील के पत्थर है । दलित समाज
अम्बेडकरवादी विचारों से पूर्णरूप से प्रभावित है और उसी का प्रभाव दलित कविता में
भी दिखाई देता है । हिंदी दलित कविता में अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करने की
प्रेरणा अम्बेडकर से ही प्राप्त हुई है, दलित कविता में जो आक्रोश है, विद्रोह है,
वो अम्बेडकर के विचारों से फैली चेतना से प्रेरित है । दलित कविता में जाति के आधार
पर शोषण, उत्पीड़न एवं अपमान का विरोध अम्बेडकर से प्रभावित है । दलित कविता में
अस्मितादर्शी कविता भी अम्बेडकर के विचारों से प्रभावित है । कई कवियों ने तो
अम्बेडकर के जीवन को ही आधार बनाकर कविता लिखी है ।
संदर्भ
ग्रन्थ-सूची:-
1.
डॉ. एन. सिंह,
‘दलित साहित्य परम्परा और विन्यास’(2011), ‘वाग्देवी प्रकाशन’, गाजियाबाद पृ. सं.
230
2.
रमेशचन्द्र
चतुर्वेदी, ‘बीसवीं सदी की हिंदी दलित कविता’ (2008), ‘साहित्य संस्थान’,गाजियाबादपृ.
सं. 69
3.
डॉ. एन. सिंह,
‘दलित साहित्य परम्परा और विन्यास’, पृ. सं. 231
4.
माताप्रसाद गुप्त,
‘राजनीति की अर्द्दसतसई’, पृ. सं. 26
5.
रमेशचन्द्र
चतुर्वेदी, ‘बीसवीं सदी की हिंदी दलित कविता’, पृ. सं. 196
6.
कौशल्या बैसंती,
‘दलित कविता और अम्बेडकर’ मासिक, प्रतिपक्ष, अप्रैल, 1991
7.
डॉ. एन. सिंह ‘सतह
से उठते हुए’, पृ. सं. 11
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