Thursday, October 8, 2020

 

                                       

      स्वाति चौधरी

                                                  

 

हिंदी सिनेमा और भाषा के बदलते संदर्भ 

अगर आप किसी से ऐसी भाषा में बात करते हैं, जिसे वह समझता है, तो वह उसके दिमाग तक जाती है । यदि आप उससे उनकी ही भाषा में बात करते हैं तो वह उसके ह्रदय तक जाती है ।[1]                                                                                                                                                                                                -नेल्सन मंडेला

भारत एक ऐसा देश है जहाँ बहुजातीय, बहुभाषीय, बहुनस्लीय और बहुधर्मीय मानव-समुदाय प्रेम और सौहार्द से मिलजुल कर रहते हुए एक गौरवशाली राष्ट्र का निर्माण करते हैं । जिसमें विविधताओं के होने के बावजूद भी हिंदी भाषा सम्पूर्ण क्षेत्रों में समझी जाती है । यह उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक व पूर्व में आसाम से लेकर पश्चिम में गुजरात बोली और समझी जाती है । आज हिंदी ने भारत की सीमाओं को लांघकर विश्व के हर कोने में अपनी पहचान बना ली है । विश्व के करीब 192 देशों में हिंदी आज न केवल पढाई जा रही है बल्कि बोली भी जा रही है । इसी हिंदी भाषा को विश्वस्तरीय पहचान दिलाने में सिनेमा की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है । स्वतन्त्रता के पश्चात् भारतीय संविधान में 14 भाषाओं को स्वीकृति प्रदान की गई थी । तब से लेकर आज तक भारत सरकार हिंदी सिनेमा में प्रत्येक भाषा पर फिल्म बनाने के लिए सुख-सुविधा प्रदान कर भाषा को प्रोत्साहित कर रही है क्योंकि प्रत्येक कला विधा की अपनी एक भाषा होती है और अपना एक मुहावरा होता है । जिस प्रकार से चित्र की भाषा रंग और रेखाएँ और नृत्य की भाषा पदचाप और मुद्राएँ हैं । उसी प्रकार सिनेमा की भी अपनी एक भाषा है । जिसके माध्यम से ही यह समाज के लोगों के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है । प्रारंभिक दौर से लेकर आज तक इसके विकास में हिंदी भाषा का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है । सिनेमा में शुरू से अंत तक एक कहानी को प्रस्तुत किया जाता है । यह कहानी पात्रों के संवादों द्वारा व्यक्त की जाती है और इन संवादों को ही फिल्म की भाषा कहा जाता है । इन्हीं संवादों की भाषा के माध्यम से भारत की गौरवशाली परम्परा, उसका स्वर्णिम इतिहास और भारतीय संस्कृति को विश्व के कोने-कोने में हिंदी के माध्यम से प्रचारित-प्रसारित करने में हिंदी सिनेमा का महत्त्वपूर्ण योगदान है । सिनेमा एक ऐसा माध्यम है जो हमारे समक्ष कई संस्कृतियों और कलाओं को प्रस्तुत करता है । इसमें आरंभिक दौर से लेकर अब तक कई परिवर्तन हुए है । जिससे समय के साथ-साथ इस हिंदी सिनेमा की तस्वीर भी बदलती रही है ।

आज सिनेमा को लेकर नवीन प्रयोग हो रहे हैं । हिंदी सिनेमा में संवाद लेखन और पटकथा तक सभी में क्षेत्रीय भाषाओं का प्रभाव देखने को मिलता है । इस प्रकार के प्रयोग सिनेमा में प्रारम्भ से ही होते आ रहे हैं परन्तु वर्तमान समय में ये प्रयोग बढ़ते जा रहे हैं । हिंदी सिनेमा भाषा प्रचार की संस्कृति और जातीय प्रश्नों के साथ निरंतर गतिमान रहा है । उसकी यह प्रकृति बहुत ही सहज, रोचक, बोधगम्य, संप्रेषणीय और ग्राह्य रही है । हम जब हिंदी सिनेमा का मूल्याङ्कन करते हैं तो पाते हैं कि भाषा का प्रचार-प्रसार, साहित्यिक कृतियों का फ़िल्मी रूपांतरण, हिंदी गीतों की लोकप्रियता हिंदी की अन्य उपभाषाएँ और अन्य हिंदी बोलियों का सिनेमा और सांस्कृतिक एवं जातीय प्रश्नों को उभारने में भारतीय सिनेमा का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है । हिंदी भाषा की सरंचनात्मकता, शैली, कथन, बिम्ब, प्रतीक, दृश्य विधान आदि मानकों को हिंदी सिनेमा ने गढ़ा है । आज हिंदी सिनेमा भारतीय समाज, हिंदी भाषा, साहित्य और संस्कृति का लोकदूत बनकर चारों ओर पहुँचने की दिशा में अग्रसर हुआ है ।

भाषा के आधार पर अगर देखा जाये तो हिंदी सिनेमा में या यूँ कहे भारतीय सिनेमा में हिंदी भाषा के आलावा अन्य भारतीय भाषाओं में भी सिनेमा तैयार किया गया लेकिन हिंदी की लोकप्रियता का ग्राफ इन सभी भाषाओं में सबसे ऊपरी पायदान पर रहा है जिसकी प्रसिद्धि विश्व के हर कोने में फैलती चली गई । 1934 में जब हिंदी सिनेमा का सफ़र आरम्भ हुआ तो हिंदी भाषा अपने असली रूप में प्रयोग में लायी जा रही थी परन्तु वर्तमान समय में गैंग ऑफ़ वासेपुर, पानसिंह तोमर जैसी फिल्मों ने हिंदी सिनेमा में प्राचीन परम्परा को परिवर्तित किया और फिल्मों में हिंदी भाषा के साथ-साथ क्षेत्रीय भाषाओं का भी प्रयोग होने लगा । आज सिनेमा में भारत के विभिन्न राज्यों की भाषाओं की खुशबू आती है । आज हिंदी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा ही नहीं है अपितु लोगों के जीवन सरोकारों, स्पन्दन, भावात्मक संचार, आर्थिक स्थिति, वैचारिक बनावट आदि को भी दर्शाती है । भारतीय सिनेमा के प्रारंभिक दौर में राजा हरिश्चंद्रफिल्म में मराठी भाषी दादा साहेब फाल्के ने सब टाईटल्स अंग्रेजी के साथ-साथ हिंदी में भी रखे थे । जब उन्होंने पहली बार फिल्म में आवाज को शामिल किया तो उसमें हिंदी का ही प्रयोग किया । फिल्मों में व्यावसायिक संभावनाओं को ध्यान में रखते हुए हिंदी के विशाल दर्शक वर्ग तक पहुँचने के लिए हिंदी भाषा से बेहतर कोई दूसरा विकल्प नहीं था । इसीलिए आर्देशिर ईरानी ने भारत की पहली सवाक फिल्म आलमआरा1931 में हिंदी उर्दू मिश्रित हिन्दुस्तानी आम बोलचाल की भाषा का प्रयोग किया । 1931 में जो 27 फ़िल्में बनी थी इनमें से 22 तो हिंदी में ही थी। आलमआरा के बाद जब बोलती फिल्मों का प्रारंभ हुआ तो बांग्ला, मराठी आदि की भाषा-संस्कृति ने ही हिंदी सिनेमा को सम्पन्न किया । इस आरंभिक दौर को हिन्दुस्तानी सिनेमा भी कहा जाता है । हिंदी फ़िल्में प्रारंभ से ही भारत की सामाजिक संस्कृति की उपज थी । हिंदी भाषी प्रदेशों की प्रतिभाओं तथा विभिन्न प्रदेशों की सिनेमा समर्पित प्रतिभाओं के सम्पर्क एवं अंतर्क्रिया से हिंदी सिनेमा का संसार जगमगा उठा । प्रारम्भिक दौर से लेकर वर्तमान समय तक सिनेमा की भाषा ने कई रंग बदले है । शुरूआती दौर में जहाँ भाषा, साफ, लयबद्ध और सरल थी । वही आधुनिक युग की भाषा के कई रंग हैं । पहले की भाषा रचनात्मक, लोक और देशकाल की दृष्टि से अर्थगर्भित होती थी, श्लीलता, चारित्रिकता और भाषाई साफगोई का पूरा ध्यान उसमें रखा जाता था । गुलजार के गीत मोरा रंग लई लेसे लेकर अभिताभ भट्टाचार्य के भाग-भाग डी के बोसतक भाषा प्रयोग के बदलते स्वरूप को देखा जा सकता है । फिल्मों में भाषा बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है । फिल्म देखकर जब आते हैं तो सबकी जुबान पर फिल्म के डायलोग्स ही होते हैं । जब भी कोई नई फिल्म आती है तो सभी को अभिव्यक्ति की नई भाषा मिल जाती है ।

सिनेमा भाषा के प्रचार-प्रसार का एक बहुत ही अच्छा माध्यम है । सिनेमा में हर तरह की हिंदी के लिए जगह है । फिल्म में पात्रों की भूमिका व परिस्थतियों को देखकर ही भाषा का प्रयोग किया जाता है । जिससे प्रारंभिक दौर से लेकर आज तक इसका रूप निरंतर परिवर्तित होता जा रहा है । अगर देखा जाए तो प्रारंभिक दौर की फ़िल्में अधिकतर देवी-देवताओं, पुराणों और गर्न्थों के चरित्र पर बनती थी जिनमें ज्यादातर में हिंदी भाषा ही प्रयोग में लायी जाती थी । इसके बाद ऐतिहासिक काल वाली फिल्मों में मुग़ल काल की प्रधानता होने के कारण उर्दू का अधिक प्रयोग किया जाने लगा । वही ग्रामीण परिवेश की प्रधानता वाली फिल्मों में हिंदी व प्रांतीय बोलियों का ही अधिक प्रयोग किया जाता था । जिस तरह मदर इण्डियामें हिंदी के साथ-साथ भोजपुरी भाषा का भी प्रयोग किया गया है व खेती छोड़कर गाँव से शहर में जाकर रहने वाले किसान की व्यथा कथा को आधार बनाकर बिमल राय द्वारा बनायी गयी फिल्म दो बीघा जमीन में भी हिंदी भाषा का प्रयोग किया व गानों में भोजपुरी भाषा के शब्दों की अधिकता रही ।

70 के दशक में अगर देखा जाये तो हिंदी सिनेमा में सशक्त और समानांतर सिनेमा का आरम्भ हुआ । जिसमें श्याम बेनेगल और गोविन्द निहलानी जैसे फ़िल्मकारों ने सिनेमा की भाषा और हिंदी के साथ-साथ उच्चारण की स्पष्टता पर भी ध्यान दिया । दुबे जी भी हिंदी भाषा के प्रबल समर्थक थे । जिसे उनकी जुनून, मंडी, निशांत, अंकुर, भूमिका आदि फिल्मों में देखा जा सकता है । इस दशक में समकालीन साहित्यकारों ने भी हिंदी भाषा के लिए अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया । जिसमें तीसरी कसम, सद्गति, सारा आकाश जैसी फिल्में साहित्यिक कृतियों पर कालजयी निर्माण के रूप में जानी जाती है । ऋषिकेश मुखर्जी ने भी सत्यकाम, अनाड़ी, अनुपमा चुपके-चुपके, खट्टा-मिठ्ठा, गोलमाल जैसी उत्कृष्ट फ़िल्में बनायीं । इस दौर में मुस्लिम साहित्य से जुड़े हुए गीतकार साहिर लुधियानवी, शकील बदायूनी, कैफ़ी आजमी, सुनील दत्त, राजेन्द्र कुमार आदि भी अपना अधिपत्य जमा चुके थे । ये सभी उर्दू के अच्छे जानकर थे । जिसके कारण उर्दू गीत, गजल, कव्वालियों का हिंदी सिनेमा में प्रमुख स्थान रहा । 80 के दशक में हिंदी सिनेमा की भाषा में बम्बईया पुट आने लगा । जिससे ऐसे ही आम घिसे-पिटे शब्दों का अधिक प्रयोग किया जाने लगा । जिसका प्रभाव गानों पर भी पड़ा ।

90 के दशक में भाषा और भी अधिक बिगड़ गयी । इस दशक में बिगड़ी भाषा ने हिंदी सिनेमा का रूप ही विकृत कर दिया । पैसों के लिए ही सब कुछ किया जाने लगा । जो सिनेमा पहले समाज का प्रतिबिम्ब होता था, समाज को जागृत करता था वह आज पैसा कमाने का जरिया मात्र बनकर रह गया है । आज अश्लील शब्दावली का अधिक प्रयोग किया जा रहा है । दो भागों में पूरी हुई अनुराग कश्यप की फिल्म गैंग ऑफ़ वासेपुरभी हिंदी सिनेमा में सिने भाषा को लेकर काफी चर्चित हुई । काशीनाथ सिंह के उपन्यास कासी का अस्सीपर बनी फिल्म मौहला अस्सीको भी गालियों के अधिक प्रयोग होने के कारण काफी विरोधों का सामना करना पड़ा था । तू चीज बड़ी है मस्त-मस्तगाने में भी लड़की को एक इस्तेमाल की जाने वाली चीज के रूप में प्रदर्शित किया जाता है । इस तरह वर्तमान सिनेमा की शब्दावली में काफी अश्लीलता और खुलापन देखा जा सकता है । “जिस रचनात्मक उत्कृष्टता को अदबी हल्कों में ‘महत्त्वपूर्ण’ माना जाता है, अनेक फ़िल्मी गीतकारों ने न सिर्फ उसे क्षतिग्रस्त किया है बल्कि फूहड़ता और अश्लीलता की हद तक जाकर अपनी लेखनी और रचनाकर्म दोनों को लांछित किया है । वस्तुतः इस प्रवृत्ति के लिए सिर्फ गीतकारों को दोष देना उचित नहीं होगा, भारत में ‘बाजारवाद’ के प्रमोशन और ‘ग्लोबलाइजेशन’ के कारण जनरुचि में बदलाव आये हैं, उसी के कारण फूहड़ता, अश्लीलता और विकृतियाँ समस्त कला माध्यमों पर छाती जा रही है ।”[2]     

सिनेमा में अगर बोलियों के प्रयोग को देखा जाये तो कहा जा सकता है कि हिंदी बोलियों का सिनेमा अपनी तकनीकी अपरिपक्वता तथा अपने सीमित संसाधनों के कारण भले ही अंतराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान नहीं बना पाया हो किन्तु इन बोलियों की शक्ति को बचाएँ रखने की सम्भावना उसने जरूर दिखाई है । जैसे जवरीमल्ल पारख कहते हैं कि  “बिमल राय हिंदी में सिनेमा बनाते हैं, लेकिन बार-बार वे हिंदी में बंगला समाज को प्रस्तुत करते हैं, चाहे वह ‘देवदास’ में हो या ‘परिणीता’ में । जब वे ‘यहूदी’ में बंगाली समाज के बाहर जाते हैं तो वे हिंदी भाषी समाज की तरफ नहीं मुड़ते बल्कि हिन्दुस्तानी से दूर रोम और मिश्र के इतिहास की तरफ मुड़ते हैं । गुजरात के महबूब खान भी अपनी महाकाव्यात्मक फिल्म ‘मदर इण्डिया’ में गुजराती पृष्ठभूमि में किसान समस्या को उठाते हैं । इसी सच्चाई को हम वी. शांताराम से श्याम बेनेगल तक लगातार देख सकते हैं । वे हिंदी भाषा में तो सिनेमा बनाते हैं, लेकिन उस यथार्थ को लेकर जिसका सम्बन्ध या तो उनकी मातृभाषा से है या फिर किसी एक भाषाई क्षेत्र से उसे जोड़ना कठिन है । ‘गंगा जमुना’ या ‘लगान’ जैसी फ़िल्में, जिनमें भोजपुरी या अवधी का प्रयोग किया गया है हिंदी भाषी क्षेत्र की फ़िल्में नहीं कही जा सकती । स्थानीय स्पर्श देने के लिए इनमें क्रमशः भोजपुरी और अवधी का प्रयोग किया गया है ।”[3]

हिंदी फिल्मों के विस्तार का प्रभाव क्षेत्रीय भाषाओं पर भी पड़ा है और इसी प्रभाव के कारण हरियाणवी, पंजाबी, राजस्थानी, बुन्देली, छत्तीसगढ़ी, भोजपुरी आदि क्षेत्रीय भाषाओं में फ़िल्में बननी शुरू हुई । हिंदी की सहायक भाषाएँ होने के कारण अपने क्षेत्रों के अतिरिक्त अन्य हिंदी भाषी क्षेत्रों में भी ये चर्चित हुई । भोजपुरी फ़िल्में भी पहले अपने क्षेत्रों तक ही सीमित थी लेकिन अब महाराष्ट्र, उड़ीसा, असम, बंगाल और मध्यप्रदेश में भी काफी प्रचलित है । “हिंदी फिल्मों पर भोजपुरी का इतना जबरदस्त प्रभाव है कि हिंदी की अधिकांश मसाला फ़िल्मों में भोजपुरी गीत, संवाद, या पात्र रखना एक आम बात हो गई है। भोजपुरी फ़िल्में कम लागत में अधिक लाभ देती है । यही कारण है कि स्वतन्त्रता के बाद लगभग दो सौ से ज्यादा फ़िल्में बन चुकी है और काफी संख्या में आज भी निर्माणाधीन है इनमें कुछ चर्चित फ़िल्में -‘सबहिं नचावत राम गोसाई’, ‘करार’, ‘नथुनियाँ’, ‘तोहार किरिया’, ‘पैजनियां’  आदि है ।”[4] आज हिंदी सिनेमा को जरूरत है कि क्षेत्रीय भाषाओं में फ़िल्में अधिक से अधिक बने जिससे की हिंदी भाषा का वटवृक्ष और भी ऊर्जा स्त्रोत विकसित कर सके क्योंकि इन विभिन्न प्रकार की बोलियों को बोलने वाला सिनेमा भी अंततः हिंदी भाषा के विकास में महत्त्वपूर्ण साबित होता है । जिससे राष्ट्रीय एकता को भी दृढता मिलती है । भाषा में समाज और संस्कृति का प्रवाह रहता है । हिन्दुस्तानी समाज में हिंदी सिनेमा ने विभिन्न राष्ट्रीयता, सामाजिक ढाँचा, पारिवारिक रिश्ता, आतंकवाद, कृषि,  किसान, बाजारवाद, प्रवासी जीवन आदि अनेक मुद्दों को उठाया है । हिंदी सिनेमा ने अपने कथानक, संवादों, पात्रों और भाषा की अभिव्यक्ति के आधार पर इन मुद्दों की तरफ हमारा ध्यान आकर्षित किया है ।

हिंदी फिल्मों ने हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार के साथ हिंदी भाषी समुदाय की चुनौतियों, चाहतों तथा संघर्ष सपनों को भी विश्व-फलक पर पहुँचाने में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान प्रदान किया है । हिंदी भाषा का विश्व व्यापी प्रसार इन मुद्दों को संबोधित किये बिना अधुरा ही माना जाता है लेकिन हिंदी सिनेमा ने अपनी इस भूमिका का बखूबी निर्वहन किया है । दुनिया की कोई भी भाषा अपने नए माहौल से अनुकूलन किये बिना अपना अस्तित्व स्थापित नहीं कर सकती । समाज की नई हलचलों को पहचानने घटनाओं को जानने तथा उनके अभिलेखन के लिए एक भाषा का अपना ताना-बाना बदलना ही पड़ता है। हिंदी भाषा भी नवीन चुनौतियों के वहन के लिए नयी विधाओं और नए नए रूपों में हमारे सामने आई है । हिंदी भाषा में सिनेमा निर्माण के साथ-साथ उर्दू को प्रमुख सहायिका भाषा के रूप में प्रयोग किया है गीतों और संवादों के लिए दृश्यता का समावेश किया । भाषा और बिम्ब के अंतर की पहचान बढ़ाई । नयी-नयी शैलियों जैसे मुम्बईयां भाषा को भी सिनेमा ने मानक बनाया । नए-नए कोड, मिथकों, प्रतीकों का ईजाद किया । पटकथा-लेखन, संवाद लेखन एवं गीत-संगीत लेखन जैसी कई नयी विधाओं का सृजन किया । हिंदी सिनेमा ने हिंदी भाषा को तकनीकी अनुकूलन के लायक बनाया । इस प्रकार से कहा जा सकता है कि हिंदी सिनेमा ने हिंदी भाषा के नए नए रूप-रंग और साँचे-ढाँचे को गढ़ा है । हिंदी साहित्य, हिंदी भाषा और हिंदी की अन्य उपबोलियों भाषाओं पर हिंदी सिनेमा का गहरा प्रभाव पड़ा है । 

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि भाषा ही सिनेमा की शक्ति है जिससे ही आज हिंदी सिनेमा अपनी उत्कृष्टता की चरम सीमा तक पहुँचा है । अपने प्रारंभिक दौर से लेकर आज तक उसके अनेक प्रतिमान बदले है जिससे कभी स्थानीय भाषाओं का व कभी उर्दू मिश्रित शब्दावली का प्रयोग समय और समाज की माँग के अनुसार किया गया है । भाषा, शैली, प्रतीक, बिम्ब आदि मानदंडों पर भी अनेक प्रयोग किये गए । आलमआरा से लेकर पद्मावत और मुक्केबाज तक भाषा के अनेक रूप देखे जा सकते हैं । सिनेमा के लिए भाषा का बहुत महत्त्व है । भाषा समाज की अभिव्यक्ति का माध्यम होती है और सिनेमा समाज के लोगों के लिए ही होता है, समय और समाज से ही सिनेमा शब्दावली ग्रहण करता है । जिससे प्रारंभ से लेकर आजतक भाषा के कई रूप आये है । भारतीय समाज की भाषा हिंदी होने के कारण हिंदी के विकास में सिनेमा ने अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है । भाषा पर ही फिल्म की सफलता निर्भर करती है । जिस फिल्म में भाषा की शक्ति जितनी अधिक होती है । वह फिल्म उतनी ही सार्वभौमिक और सर्वकालिक बन जाती है । इसी भाषा की सक्षमता के दम पर आज हिंदी सिनेमा अपना परचम लहरा रहा है और हिंदी भाषा और भोजपुरी, राजस्थानी, हरयाणवी, मैथिली आदि उपभाषाओं में भी सफलतापूर्वक फिल्मों का निर्माण किया जा रहा है ।  

 

संदर्भ ग्रंथ :-

1.   नया ज्ञानोदय, संपादक – लीलाधर मंडलोई, पृ. सं. 1, अंक-172, जून 2017  

2.   संपादक मृत्युन्जय, ‘सिनेमा के सौ बर्ष’, ‘शिल्पायन’, (2011) तृतीय संस्करण,  शाहदरा, दिल्ली पृ. सं. 343

3.   पारख जवरीमल्ल, ‘साझा संस्कृति, साम्प्रदायिक आतंकवाद और हिंदी सिनेमा’ (2012 ), ‘वाणी प्रकाशन’ दरियागंज, नयी दिल्ली   पृ. सं. 245-246 

4.   संपादक मृत्युन्जय, ‘सिनेमा के सौ बर्ष’, ‘शिल्पायन’, (2011) तृतीय संस्करण,  शाहदरा, दिल्ली पृ. सं. 396

 

 स्वाति चौधरी

शोधार्थी, हिंदी विभाग

                                हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय, हैदराबाद

                                मो. 9461492924

                                 ईमेल- swatichoudhary212@gmail.com



 

 

 

 

Wednesday, July 22, 2020

स्त्री की आजादी का दस्तावेज : आजादी मेरा ब्रांड

स्त्री की आजादी का दस्तावेज : आजादी मेरा ब्रांड

                                                        स्वाति चौधरी 


शतरंज चैम्पियन, हरियाणवी छोरी अनुराधा बेनीवाल की यूरोप घुमक्कड़ी के संस्मरणों के आख्यान ‘यायावरी आवारगी’ की पुस्तक श्रृ्ंख्ला में ‘आजादी मेरा ब्रांड’ पहली किताब है, जिसका प्रकाशन राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली से जनवरी 2016 में हुआ । स्त्री की स्वतंत्रता की आवाज को बुलंद करती इस कृति का वास्तविक ब्रांड आजादी है । इसी आजादी की तलाश में यूरोप के 13 देशों में एक लड़की के द्वारा की गयी घुमक्कड़ी की कहानी इसमें है । अकेले, बिना किसी मकसद के, बेपरवाह, बेफिक्र होकर की गई यात्राओं का वृतांत है । एक अकेली बेकाम, बेफिक्र, बेटेम घूमती-फिरती लड़की में अलग ही ताकत होती है, साहस होता है । ऐसा साहस जिसे बाहर निकलने का मौका ही नहीं दिया जाता । इसी साहस के दम पर की गई बेमकसद यात्राओं की अनूठी दास्तान है ‘आजादी मेरा ब्रांड’ ।

इस श्रृ्ंख्ला में यूरोप के तेरह शहर लन्दन, पेरिस, लील, ब्रसल्स, कॉकसाईड, एम्स्टर्डम, बर्लिन, प्राग, ब्रातिस्लावा, बुडापेस्ट, म्युनिक, इंस्ब्रुक, बर्न की एकाकी यात्राओं के वृत्तांत है । इन एकाकी यात्राओं में कहीं पर भी ऊब महसूस नहीं होती है । ज्ञान के बोझ से कहीं पर भी भारीपन नहीं लगता है । बल्कि इसमें तो पाठक भी साथ-साथ यात्रा करने लगता है, इस यात्रा में यह अजनबी, आवारा लड़की कब आपकी दोस्त बन जाती है पता ही नहीं चलता और अन्दर और बाहर दोनों ही तरह की यात्राओं से रूबरू कराती चलती है, इसमें जितनी यात्राएँ बाहर की दुनिया की है, उतनी ही अन्दर की दुनिया की भी है और यह इन्हीं दोनों दुनियाओं को जोड़ती हुई चलती है ।

आरम्भ में ही अनुराधा कहती है कि यात्रा के लिए खुद को ही निकलना पड़ेगा । कोई तुम्हारा हाथ पकड़कर नहीं ले जा सकता । अकेले कैसे जाएँ, घरवाले जाने देंगे, बाहर कितना सेफ है ? कहाँ रहूँगी ? क्या खाऊँगी ? जैसे सवाल जब तक दिमाग में रहेंगे तुम घूमने के लिए बाहर नहीं निकल सकती । लेखिका लिखती है कि “ट्रेन सही समय पर होगी, इसकी भी कोई गारंटी नहीं । जूते शायद टूट जायेंगे, या बिना छाते के कभी भींगना पड़ सकता है, कभी रूकने की जगह ठीक नहीं होगी, कभी गर्म खाना नसीब नहीं होगा । फिर भी कहूँगी एक बात की ये अनजान गलियाँ- जहाँ तुम फिरोगी टैम-बेटैम, बेकाम-बेवजह-तुम्हारे अपने घर से ज्यादा सुरक्षित होंगी ।”[1]

अनुराधा घुमक्कड़ है और घूमना उन्होंने बचपन से ही शुरू कर दिया था । जब उन्हें चैस टूर्नामेंटों में खेलने के लिए बाहर कहीं ना कहीं जाना पड़ता था और फिर पापा के स्कूटर से फिरने का चस्का लगा । जब मम्मी-पापा सब सो जाते तो वह स्कूटर लेकर बेवजह, बेकाम गोहाना की गलियों में घूमती रहती थी और इन गलियों से निकलकर बेफिक्री से घूमने का बीज बोया था पुणे में इक्कीस साल की इटालियन लड़की रमोना ने । रमोना से ही सीखा जो मन में आये वही करना है और सीखा कि कपड़ों और गाँठ लगे जूतों का ब्रांड अमीरी नहीं, बल्कि आजादी है । अनुराधा रमोना के बारे में लिखती है कि “वह मेरी हीरो थी । मेरा लक्ष्य इस जीवन में गाड़ी-बंगला बनाना नहीं, अपने शरीर के साथ, अपने इमोशन्स के साथ इतना ही कम्फर्टेबल होना था । मुझे उन बेड़ियों को काटकर आसमान में उड़ना था । और कोई चारा बचा नहीं था, एक बार आजादी चख लेना खून चख लेने जैसा है, एक बार चख लिया तो फिर कोई वापसी नहीं ।”[2] इसी आजादी को चखने के लिए ही तो अनुराधा आज गोहाना की गलियों से निकलकर लन्दन-पेरिस की गलियों को नापने लगी है और उसकी इसी घुमक्कड़ी की दास्तान है ‘आजादी मेरा ब्रांड’ ।

          यह किताब स्त्री की आजादी व स्त्री-विमर्श को नए सिरे से उठाती चलती है । अनुराधा अपने समाज और देश पर सवाल खड़े करती है । वह जिस समाज में पैदा हुई वहाँ व्यक्तिगत स्वतंत्रता जैसी कोई चीज नहीं थी । लड़की के पैदा होते ही उसे ‘संस्कारी’ और ‘लायक’ बनाने की कोशिशें शुरू हो जाती थी । इन्हीं ‘संस्कारी’ और ‘अच्छी लड़की’ जैसे शब्दों से निजात पाने व अपनी निजता की तलाश में लेखिका निकल पड़ती है । वैसे देखा जाये तो यह पुस्तक स्त्री-विमर्श या नारीवाद जैसे किसी विमर्श को प्रस्तुत नहीं करती है फिर भी लड़कियों के लिए सम्मान के साथ जिन्दा रहने, अपनी निजता व स्पेस को खोजने की तलाश है । अनुराधा अपनी निजता के सम्बन्ध में कहती है कि “मेरी निजता सिर्फ मेरी देह के मुक्त होने भर में नहीं-यह मैंने बहुत जल्द समझ लिया था । वह भी जरूरी है, आज भी मानती हूँ । लेकिन आजादी का बोझ इतने भर में सीमित नहीं । देह की आजादी को पाना आसान है । इस लड़ाई से पार पाना अपने वश में है; बशर्तें ‘बिगड़ी हुई’, ‘होर’, ‘रंडी’ – जैसे विशेषणों को हँसकर उड़ाने भर की मानसिक मजबूती हो ।”[3] 

                   एक महीने में की गई इन यात्राओं की शुरुआत लन्दन व पेरिस से होती है और अंत में इन्सबुर्क, बर्न होते हुए पेरिस में आकर ख़त्म होती है । इस यात्रा में सबसे अधिक रोचक है- रास्ते में लिफ्ट देने वाले लोग, घर में जगह देने वाले होस्ट, फिर लेखिका का अनजान शहरों की अनजान गलियों में पैदल घूमना, जिसमें वो रास्ता भूलकर भटकती है, पैदल चलती है, कभी गलत रास्तों पर जाकर वापस आधा घंटे उसी रास्ते पर चलना, कभी रास्ते का पता नहीं होने पर भी चलती रहती है, तो कहीं उसका फ्री वाई-फाई व टॉयलेट के लिए कैफे ढूंढते फिरना । सहज ही आकर्षित करते हैं । वह यूरोप के महंगे शहरों में जाकर होटलों में अपने पैसे बर्बाद नहीं करना चाहती। महंगी ट्रेनों के टिकट लेने से पहले भी चार बार सोचती है । जाने के लिए लिफ्ट और आसरे के लिए वह होस्ट ढूँढती रहती है । और उसे अलग-अलग किस्म के लोग मिलते हैं, कहीं एक अकेले आदमी के साथ रूकती है तो कहीं चालीस लोगों के साथ, कहीं गेट बंद करने के लिए चिटकनी नहीं होती है तो किसी का बाथरूम जंगल की तरह लगता है। कही धर्म को लेकर बहस चलती है तो कहीं माँ-बेटी के रिश्तों व उनके अलग रहने को लेकर बातें । मददगार, दोस्त व मानवीयता के नए आयाम दिखाते कई तरह के होस्ट मिलते हैं । इन्हीं के साथ लेखिका रूकती है, ठहरती है, मन और बजट के अनुसार आगे बढ़ती जाती है ।

          दुनिया घूमकर अपना निजी स्पेस बनाती एक लड़की का यह यात्रा वृत्तांत स्त्री की आजादी का दस्तावेज़ है । एक भारतीय लड़की को घर से बाहर निकलने से पहले बहुत कुछ सोचना पड़ता है और सुनना भी पड़ता है । अनुराधा लिखती है कि “मेरे समाज की लड़कियाँ यूँ ही बिना काम नहीं टहलती थीं । लड़की का बाहर जाना बिना किसी काम के अकल्पनीय था । क्यों जाएगी लड़की बाहर ? क्या करने ? जरूर किसी से मिलने जाती होगी । या कोई काम करवाने ।”[4]                       

लेखिका हर जगह अपने समाज के लोगों से सवाल करती और लड़कियों को संबोधित करती हुई चलती है । एक समाज में लड़कियों को किस नजरिये से देखा जाता है । उसे बताती है तो साथ ही वह लड़कियों को बेड़ियाँ काटकर आसमान में उड़ने के लिए प्रेरित करती है । वह अपनी निजता की तलाश में कभी पुणे से जैसलमेर तो कभी यूरोप के अलग-अलग शहरों में भटकती रहती है और उसकी निजता अंत में जाकर हर एक भारतीय लड़की की निजता बन जाती है । वह सवाल करती है कि “क्यों नहीं चलने देते तुम मुझे ? क्यों मुझे रह-रहकर नज़रों से नंगा करते हो ? क्या तुम्हें मैं अकेले चलती नहीं सुहाती ? मेरे महान देश के महान नारी पूजकों, जवाब दो । मेरी महान संस्कृति के रखवालों, जवाब दो । मैं चलते-चलते जैसे चीखने लगती हूँ । मुझे बताओ मेरी संस्कृति के ठेकेदारों, क्यों इतना मुश्किल है एक लड़की का अकेले घर से निकल चल पाना ? जो समाज एक लड़की का अकेले सड़क पर चलना बर्दास्त नहीं कर सकता, वह समाज सड़ चुका है । वह कल्चर जो एक अकेले लड़की को सुरक्षित महसूस नहीं करा सकता, वह गोबर कल्चर है ।”[5]  

यह पुस्तक भारत की स्त्रियों के लिए स्वतंत्रता का एक घोषणा पत्र है जिसमें वह लड़कियों से धर्म, संस्कार, मर्यादा की बेड़ियों को तोड़कर, सब कुछ भूलकर घूमने की हिमायत करती है । वह ‘सबके बाद, हमवतन लड़कियों के नाम’ से लड़कियों को सन्देश देती है कि “तुम चलना । अपने गाँव में नहीं चल पा रही तो अपने शहर में चलना । अपने शहर में नहीं चल पा रही तो अपने देश में चलना । अपना देश भी मुश्किल करता है चलना तो यह दुनिया भी तेरी ही है, अपनी दुनिया में चलना लेकिन तुम चलना । तुम आजाद बेफिक्र, बेपरवाह, बेकाम, बेहया होकर चलना । तुम अपने दुपट्टे जला कर, अपनी ब्रा साईड से निकाल कर, खुले फ्रांक पहनकर चलना । तुम चलना जरूर ।”[6]

स्त्रियों को लेकर भी वह देखती है कि ऐसा क्या है इन देशों में जहाँ महिलाओं को इतनी आजादी, सुरक्षा व आत्मनिर्भरता मिली हुई है । वह अकेले यात्रा करती है, अनजान लोगों के घरों में रूकती है । आधी रात में भी वह सड़कों पर अनजान राहों में घूमती रहती है । इसी आजादी को वह अपने देश में ले जाना चाहती है । जिससे वह अपने गाँव, शहर, खेतों में स्वछन्द होकर घूम सकें । “चीखते-चीखते अब मैं रोने लगी थी – मैं वह चीज लिए बिना नहीं जाऊँगी...मैं जोर-जोर से गालियाँ देती रही । मैं चीख-चीखकर रोती रही । मैं रास्ते में चलते लोगों से वह चीज माँगती रही । प्लीज, मुझे वह चीज दे दो । मैं अपने देश ले जाना चाहती हूँ । मैं अपने देश में जीना चाहती हूँ । मैं अपने देश में चल सकना चाहती हूँ । वैसे जैसे चलना चाहिए किसी भी मनुष्य को, क्या मर्द, क्या औरत ! बेफिक्र, बेपरवाह, स्वतंत्र मन और स्वतंत्र विचार से, स्वतंत्रता के अहसास से !”[7] वह देश, काल, समाज, व्यवस्था, परम्परा सभी को लेकर प्रश्न उठाती है । झीलों, पहाड़ियों, मीनारों, सड़कों, बाजारों, इमारतों के साथ-साथ इतिहास, भूगोल व समाज पर भी वह अपनी दृष्टि डालती हुई चलती है । पाठक को अपने सम्पर्क में आने वाले हर एक व्यक्ति से परिचय करवाती है । विदेश में घूमकर भी अपने देश से शिकायतें होने के बावजूद वह उसे कभी भूलती नहीं है । जब वह लिफ्ट लेकर गाड़ी में जा रही होती है तो बताती है कि किसी से भी मिलों तब या तो वह भारत जा कर आ गया या जाना चाहता है जब उससे भारत की विस्तृतता के बारे में पूछा जाता है तो भारत की विस्तृतता व विविधता में एकता को बताते हुए समन्वयवादी दृष्टिकोण से वह कहती है कि “एक मौसम थोड़ी है मेरे देश में, ना ही एक भूगोल । न एक रंग और न एक ही ढंग । मोह भी है मेरे देश में और माया भी । धर्म भी है और पाखंड भी । ध्यान भी है मोक्ष भी । सीता भी है और दुर्गा भी। दया भी है और अहंकार भी है । प्रेम भी है और लाचारी भी । मेरे देश में जाओ तो कोई एक प्लान बनाकर मत जाना । वह खुद तुम्हारे लिए प्लान बनाएगा । खाली दिमाग लेकर जाना। जाने कब सामने भूखा नंगा भिखारी आ जाएँ और जाने कब आ जाएँ ये बड़ी बड़ी गाड़ियों का रेला ! जाने कब पॉकेट कट जाएँ और जाने कब कोई अपना पेट काटकर तुम्हें खिला दे । बड़ा अनोखा है मेरा देश !”[8] लेखिका विदेश में होकर भी अपने देश, अपनी मिट्टी को नहीं भूलती है । बरसाय में जाकर वहाँ फ़्रांस व हरियाणा की समानताओं को देखती है वह कहती है कि “घर में हरियाणा और फ़्रांस का एक रोचक मेल दिखा मुझे । रसोई में स्टील के बर्तन और ड्राइंग रूम में फ्रेंच रेवोल्यूशन की किताबें । दरवाजे पर तोरण और रसोई में पास्ता । बच्चे बोलें फ्रेंच और माँ हरयाणवी ।”[9] 

 अनुराधा लड़कियों के घूमने पर सबसे अधिक जोर देती है । वह कहती है कि तुम्हें खुद पर यकीन रखते हुए, खुद का सहारा बनकर अपने आप के साथ घूमना है । अपने गम, खुशियाँ, तन्हाई लेकर इस दुनिया को देखना है । इस दुनिया में कुछ पाने और कुछ खोने के लिए तुम घूमना । लेकिन तुम्हें घूमना है । जिससे यह परम्परा आगे भी बढ़ती चलेगी । वह लिखती है कि “तुम चलोगी तो तुम्हारी बेटी भी चलेगी, और मेरी बेटी भी । फिर हम सब की बेटियाँ चलेंगी । और जब सब साथ चलेंगी तो सब आजाद, बेफिक्र और बेपरवाह ही चलेंगी । दुनिया को हमारे चलने की आदत हो जायेगी । अगर नहीं होती तो आदत डलवानी पड़ेगी, लेकिन डर कर घर में मत रह जाना ।”[10]

इस पुस्तक में लेखिका का व्यक्तित्व खुलकर प्रस्तुत हुआ है । वह देह की मुक्ति से लेकर हर तरह के सामाजिक बन्धनों को तोड़ती हुई अपनी इच्छाओं, आकांक्षाओं, विचारों सब कुछ  को उघाड़कर प्रस्तुत कर देती है । कहीं भी लज्जा व शर्म के मारे कुछ भी छुपाती नहीं है । अपनी कमजोरियों और ताकत को साहस और आत्मविश्वास के साथ प्रस्तुत करती है । जिससे इसकी ईमानदारी हर जगह प्रभावित करती है । लेखिका कहती है मुझे चल सकने की आजादी चाहिए । टेम-बेटेम, बिंदास, बेफिक्र होकर, हँसते-रोते, सिर उठाकर सड़क पर निकल पड़ने की आजादी । कुछ अच्छे-बुरे, अनहोनी की चिंता किए बगैर अकेले ही चल पड़ने की आजादी की तलाश में अनजाने शहरों की भूल-भूलैय्या में बेवजह, बेफिक्र, अनजान, अकेले-फिरते अपरिचितों से रास्ता पूछते अजनबी लोगों के घरों में ठिकाना बनाते एक महीने में की गई यह यात्रा देशकाल के कई नवीन आयामों को प्रस्तुत करती हुई चलती है ।

इस पुस्तक की एक और महत्वपूर्ण विशेषता है इसकी भाषा । लेखिका की तरह ही बेफिक्र, लापरवाह-सी भाषा । जो लगातार बात करती चलती है । कहीं पर भी बोझिलता महसूस नहीं होती । हिंदी, अंग्रेजी, देशी-विदेशी सभी तरह के शब्दों का प्रयोग इस किताब में हुआ है । परन्तु शब्दकोश हाथ में लेने की जरूरत कही नहीं पड़ती । चाहे शब्द प्रयोग हो या वाक्य प्रयोग हर जगह भाषा प्रयोग एकदम बिंदास है । लेखिका भाषा के अधिक दाँव-पेंच नहीं अपनाती है । पढ़ते समय ऐसा लगता है कि कोई पास बैठकर बातें कर रहा हो, किस्से सुना रहा हो । इसकी भाषा हिंदी को साहित्यिकता के एक निश्चित दायरे से निकाल कर साधारण करके हिंदी की लोकप्रियता को बढ़ाती है । उन्होंने पाठक से संवाद करते हुए, बिना किसी झिझक के अपनी सोच को अभिव्यक्त किया है । लेखिका के अन्दर आत्मविश्वास की एक लहर है, जो शब्दों के माध्यम से अभिव्यक्ति प्राप्त करती है ।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि यह किताब घुमक्कड़ों और विशेषकर भारतीय स्त्रियों के लिए एक महत्वपूर्ण पुस्तक है । जो रूढ़ संस्कृति के दायरे से बाहर निकल कर आजादी की बात करती है । इसके सम्बन्ध में अनामिका कहती है कि “आजादी मेरा ब्रांड नए सिरे से स्त्री-दर्शन का यह आधारभूत तथ्य रेखांकित कर रही है कि परिवार रक्त और यौन संबंधों के दायरे तक सीमित नहीं माने जा सकते । यौनिकता, नैतिकता और पारिवारिकता की नई परिभाषाएँ कोई पदानुक्रम नहीं मानती, न लड़का-लड़की के बीच, न पाठक-लेखक के...अनुराधा अपने वृत्तान्त में जिन चुनिंदा क्षणों का प्रति संसार रचती है, उसका बस एक ही सपना है कि किसी के जीवन का स्वीच किसी और के हाथ में न हो...”[11]  

संदर्भ :-

1.   अनुराधा बेनीवाल, ‘आजादी मेरा ब्रांड’(2016), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ.13 भूमिका से  

2.   वही, पृ. 6

3.   वही, पृ. 10

4.   वही, भूमिका 14-15

5.   वही, पृ. 186

6.   वही, पृ. 188

7.   वही, पृ. 186-187

8.   वही, पृ. 67

9.   वही, पृ. 27

10.    वही. 188

11.    वही, फ्लैप पेज से

 

 

Thursday, July 16, 2020

स्त्री यातना का रक्तरंजित दस्तावेज : देह ही देश

स्त्री यातना का रक्तरंजित दस्तावेज : देह ही देश
                      स्वाति चौधरी

        ‘देह ही देश’ सन् 2017 में प्रकाशित गरिमा श्रीवास्तव की क्रोएशिया प्रवास के दौरान लिखी गई यात्रा डायरी है । इससे पहले भी इस डायरी के अंश ‘हंस’ पत्रिका में प्रकाशित हुए थे । यह यात्रा और डायरी दोनों का सम्मिलित रूप है जो 2009-2010 के दो अकादमिक सत्रों में भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद की ओर से जाग्रेब विश्वविद्यालय के सुदूर पूर्वी अध्ययन विभाग में प्रतिनियुक्ति के दौरान लिखी गई थी । यह सर्ब-क्रोआती बोस्नियाई संघर्ष के दौरान स्त्रियों द्वारा भोगे गए यथार्थ का दस्तावेज है जिसमें 90 के दशक में पूर्वी यूरोप के सयुंक्त युगोस्लाविया में हुए युद्ध और विखंडन से विस्थापित हुए लोगों को खासकर स्त्री की शारीरिक एवं मानसिक शोषण की स्थितियों का चित्रण किया गया है ।

इसमें सामूहिक बलात्कार की शिकार बनकर मानसिक संतुलन खो बैठी स्त्रियों की सच्चाई, अपने नवजात की जान बचाने के लिए निर्वसन होने वाली स्त्री की सच्चाई या एरिजोना मार्केट में देह-व्यापार में डूबती उतरती स्त्रियों के सच या उनके अनकहे आख्यानों को सुनाने की कोशिश की गई है । इसमें इन्हीं परिचिताओं की आपबीती को अभिव्यक्ति दी गई है ।

इस यात्रा डायरी में बड़ी ही सूक्ष्मता और व्यापकता के साथ युद्ध, विस्थापन, पुनर्वास व सेक्स जैसे हर तरह के परिदृश्यों को परत-दर-परत उजागर किया गया है । जब-जब इस डायरी को पढ़ने की कोशिश करते हैं मस्तिष्क संवेदना शून्य हो जाता है । ये अन्दर से बाहर और देह से देश तक की ऐसी यात्राएँ है, जहाँ हत्या है, क्रूरता है, बलात्कार से पीड़ित स्त्रियाँ है, सिहरन है, चीखते-चिल्लाते बच्चे है । यह रक्तरंजित युद्ध के इतिहास का सच्चा बयान है । इसके इतिहास को देखे तो इस सर्ब क्रोआती बोस्नियाई संघर्ष की भूमिका 1939-1945 के बीच द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान ही रच दी गई थी । जब संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत रूस के बीच शीतयुद्ध चल रहा था और ये क्रमशः पूँजीवादी और साम्यवादी देश के दो खेमों में बंट गये थे जिससे दोनों में आपसी टकराव का खतरा हमेशा बना रहा और बर्लिन संकट, कोरिया युद्ध और सोवियत रूस द्वारा आण्विक परीक्षण, हिन्द-चीन संकट, क्यूबा मिसाईल संकट ये सब इसी शीतयुद्ध का परिणाम थे और इसी का परिणाम था सर्बियाई-क्रोएशियाई युद्ध जिसके परिणामों का चित्रण इस पुस्तक में किया गया है । तरसेम गुजराल इस यात्रा डायरी के सम्बन्ध में लिखती है कि “रक्तरंजित इस डायरी में जख्मी चिड़ियों के टूटे पंख हैं, तपती रेत पर तड़पती सुनहरी जिल्द वाली मछलियाँ हैं, कांच के मर्तबान में कैद तितलियाँ हैं । युगास्लाविया के विखंडन का इतना सच्चा बयान हिंदी में यह पहला है ।[1]

      किताब की शुरुआत एयरपोर्ट और हवाई यात्रा से होती है । हैदराबाद से दिल्ली और दिल्ली से जाग्रेब । फिर एक नया देश, वहाँ के लोग, खानपान को लेकर होने वाली परेशानी, ठंडा मौसम व बचपन की कुछ झलकियाँ व साथ ही आत्मीय जनों को लिखी जाने वाली चिट्टियाँ । लेकिन फिर शुरू होता है जाग्रेब और क्रोएशिया का इतिहास, युद्ध का इतिहास । जिसमें है खून से सनी औरतें और बच्चे, क्षत-विक्षत जिस्म, गर्भवती होती स्त्रियाँ, जानवरों की तरह खरीदी और बेची जा रही औरतें, जंगलों की तरफ भागते पुरुष व भेड़ियों की तरह लपकते सर्बियाई सैनिक । ऐसे-ऐसे चित्रण जिनको पढ़कर मस्तिष्क सुन्न हो जाता है । लगता है जैसे सब कुछ अपनी ही आँखों के आगे घट रहा है और हम प्रत्यक्षदर्शी होकर मात्र देख रहे हैं । लगता है बस अब और नहीं । बहुत हो गया । इससे ज्यादा नहीं देखा सुना जा सकता । लेकिन ये सोचने मात्र से यह क्रम रूकता थोड़ी ना है । सेर्गेई, याद्राका, एडिना, स्त्रोकोविच, फिक्रेत, बोल्कोवेच, दुष्का, नीसा, अजर ब्लाजेविक, हसीबा, मेलिसा जैसी तमाम औरतें...जो पात्र अलग-अलग है लेकिन दुःख, दर्द व पीड़ाएँ सभी की एक है । जो एक-एक करके अपनी कहानियाँ सुनाती जाती है, हर औरत के साथ रूह कंपा देने वाली कहानियाँ जुड़ी हुई है, जिसमें पाठक अनुपस्थित होकर भी हर जगह उपस्थित लगता है । सर्बिया ने युद्ध में बोस्निया, हर्जेगोविना, क्रोएशिया के खिलाफ नागरिक और सैन्य कैदियों के 480 कैम्प बनाए थे । इन्हीं कैम्पों में स्त्रियों पर अमानुषिक अत्याचार किये गये थे । ये सभी सर्बियाई कैम्प रैप शिविरों में बदल गये थे । इनमें स्त्रियों को शारीरिक और मानसिक यातनाएँ देकर, बलात्कार करके योनियों तक सीमित करके रख दिया गया था । इतिहास के उन विद्रूप पन्नों को एक-एक करके इस किताब में खोलकर रखा गया है ।               

1992 से 1995 तक चले इस युद्ध में सयुंक्त यूगोस्लाविया से विखंडित हुए छोटे-छोटे देशों ने बहुत कुछ खोया । आम लोगों की शांति भंग हुई । नागरिक अधिकारों का हनन हुआ, विस्थापन से लाखों लोग शरणार्थी बने । लेकिन इस दौर में सबसे अधिक जघन्य हिंसा का शिकार बनी स्त्रियाँ । युद्धों के इतिहास में स्त्रियों के अस्तित्व को किस प्रकार कुचला गया था उसी का दर्दनाक ब्यौरा इस पुस्तक में प्रस्तुत किया गया है । एनिसा जब कहती है कि “मेरे शरीर पर कोई वस्त्र नहीं । वह(माँ) मुझे देखकर दहाड़े मारकर रोने लगी । मैं निर्वस्त्र नि:सहाय, घायल और अपमानित माँ ने कपड़े पहनाये, सहारा दिया, उन्होंने योनि को काट-कूट दिया था, माँ गर्म पानी से मुझे धोती जाती और कहती जाती, ‘जास्तो सी रोदेन काओ जेना ! दा उमरिएति दा उमरिएति’ (तू लड़की होकर क्यों पैदा हुई ! मर जा तू, मर जा )”[2]

 “मैं गिनती ही भूल गयी कि उन्होंने कितनी बार मुझसे बलात्कार किया । होटल के सारे कमरों में ताले लगे रहते, वे खिड़की के रास्ते हमें रोटी फैंकते, जिसे हमें दाँतों से पकड़ना पड़ता, क्योंकि हमारे हाथ तो पीछे बंधे रहते । सिर्फ बलात्कार के वक्त ही हमारे हाथ खोले जाते । हमें समय का ज्ञान भूल गया । हमारी देह को सिगरेट से जलाया जाता, जीभ पर चाकू चलाकर मांस का टुकड़ा काट लिया जाता । हममें से अधिकांश औरतें न बोलती थीं, न रोती थीं । कुछ ने अपनी जान ले ली और कई तो दर्द और भूख से मर गयी । कुछ औरतों का सात से नौ घंटे के बीच नौ-दस बार बलात्कार हुआ ।”[3] ऐसे घृणित प्रसंग जिसमें से किसको छोड़ा जाए और क्या-क्या लिखा जाएँ? कितनी अमानवीय यातनाएँ उन स्त्रियों ने सहन की थी । अपमान और हिंसा सहन करते-करते वे खुद से घृणा करने लगती है। लेकिन फिर भी अपराजित होकर जी रही है ।

बाल्कन प्रदेश में लेखिका की मुलाकात तरह-तरह की स्त्रियों से होती है जिन्होंने युद्ध के दौरान शारीरिक और मानसिक अनेक प्रकार के दंश झेले थे । ऐसी ही एक मुलाकात यांद्रका से होती है । वह अपने साथ हुए अत्याचारों के बारे में बताती है कि “रात को सैनिक आकर हमारे दरवाजे खटखटाते, हमें बाहर बुलाते । एक रात सर्ब सेना के कमांडर एलको मेजविका ने मुझे बुलाया । मैं डर रही थी, फिर भी उसके पीछे-पीछे एक कमरे में, जहाँ छह-सात लोग बैठे थे, गयी । शब्दों से पर्याप्त अपमानित करने के बाद मेजविका ने नंगे फर्श पर लेटने को कहा और शरीर के साथ मनमानी की, ऐसा लगातार चार घंटे चलता...।”[4] सर्ब सैनिक घरों में घुसकर नकदी, आभूषण, महँगी वस्तुएँ खोजते और उनको जो भी स्त्री पसंद आती उसी को अपनी हवस का शिकार बनाते । सुन्दर, कोमल, मासूम लड़कियों को डरा-धमका कर गहने-नकदी छिनने के बाद अस्मिताविहीन व पहचानविहीन किया जाता । जिसके कारण आज भी कई स्त्रियाँ ट्रामेटिक डिसऑर्डर से जूझ रही है । इसी का शिकार है अड़तीस वर्ष की एनिसा जो 1992 में 16 में वर्ष की थी तब उसके साथ यह अत्याचार किया गया था लेकिन आज भी उसके सामने वे दुर्दिन चलचित्र की भांति चल रहे हैं । वह बताती है कि आज भी मेरे कोई साथी नहीं है, मित्रहीन हूँ । पुरुष मेरी दुनिया में हिंसा और घृणित अनुभवों का प्रतीक है । आज भी पुरुषों को देखकर ही मुझे डर लगता है, घृणा होती है और इस घृणा पर मेरा कोई नियंत्रण नहीं है ।

इस युद्ध में भीषण रक्तपात हुआ था और बीस लाख से अधिक लोग शरणार्थी हुए थे । इसमें सर्बिया का एक ही उद्देश्य था कि यहाँ के नागरिकों को ज्यादा से ज्यादा प्रताड़ित किया जाएँ जिससे वे ये जमीन और देश छोड़ कर चले जाए और उनका विस्तृत देश का सपना पूरा हो सके ।  सामूहिक हत्याएँ की गई, बलात्कार हुए, यातना शिविर बनाए गये और औरतों को एक वस्तु या साधन के रूप इस्तेमाल किया गया । युद्ध के दौरान सैनिकों का जितना क्रूरतम और वीभत्स चेहरा हो सकता है, उसे ‘देह ही देश’ में देखा जा सकता है । इसी क्रूरता का एक उदाहरण दृष्टव्य है :- “जिबा से निर्वस्त्र होने को कहा जाता, मना करने पर गला रेत देने की धमकी । लगातार बीस दिनों तक उनका बलात्कार किया जाता रहा – सामूहिक तौर पर । गर्भवती औरतों में से अधिकांश को मार दिया गया । तनाव, भूख और पिटाई से कई औरतें यूँ ही बीमार पड़ जातीं, उनकी कोख खाली करवाई जाती, इसके बाद शुरू होता उनकी कोख पर हमले का सिलसिला, जब तक वे सर्बियाई सैनिकों से गर्भ धारण नहीं कर लेतीं । किसी स्त्री के गर्भ धारण की खबर पर सर्बियाई सैनिक नाच उठते, कैम्पों में जश्न का माहौल होता।”[5] हिंसा, मारकाट, घर-घर में बलात्कृत माएँ, बहनें, बेटियाँ ऊपर से सब शांत दिखाई देता है लेकिन भीतर का इतिहास पीड़ित, लहुलुहान, रक्तरंजित है ।

इस पुस्तक में लेखिका ने युद्ध पीड़िताओं से मिलकर बहुत ही शोधपरक आकड़े एकत्रित किये है । सम्पूर्ण जरूरी आकड़ों के साथ सूक्ष्मता और व्यापकता से युद्ध के दौरान के व उसके बाद के परिदृश्यों का चित्रण किया गया है । युद्ध के बाद 1995 में स्वयंसेवी संस्थाओं, सरकारों और पश्चिमी स्त्रीवादी संगठनों ने गाँव-गाँव जाकर पीड़ितों के बयान लिए और आँकड़े एकत्रित किए । लेकिन इनकी रपटें परस्पर विरोधी और चौंकानें वाली थी । बोस्निया सरकार ने जहाँ 50,000 स्त्रियों के घर्षित होने की रिपोर्ट दी । वही ज्योनिमिर सेप्रोविच ने 30,000 व यूरोपियन यूनियन के जाँच कमिशन ने 20,000 को प्रमाणित माना वही दूसरी ओर अमेरिकी स्वयंसेवी संस्थाओं का मानना है कि “जहाँ भी युद्ध होते हैं, वहाँ बलात्कार और और यौन हिंसा के मामले होना भी स्वाभाविक ही है, यह भी कि जब बोस्नियाई और क्रोआती सैनिक सीमा पर चले गये तो पीछे से उनके घरों की स्त्रियों को सर्ब सैनिकों की टुकड़ियों ने लुभा लिया। युद्धकाल में प्रेम और यौन के आवेग के फलस्वरूप अधिकांश स्त्रियों ने सर्बों को स्वयं आमंत्रित किया और यौन सम्बन्ध बनाएँ । इन स्त्रीवादियों ने कई प्रकार के आँकड़े देकर संयुक्त राष्ट्र को सौंपी रिपोर्ट में इस तरह की प्रायोजित मौलिक कल्पनाएँ की ।”[6] इस तरह की रिपोर्टों को देखकर कई स्त्रियाँ अपनी आप बीती बताने में निरुत्साहित भी हुई होंगी । रिपोर्टों को प्रस्तुत करके लेखिका ने संगठनों की सच्चाई को प्रस्तुत किया है |

बोस्नियाई परिवारों में महीनों तक माँ-बेटियों के साथ दुराचार किये गये । फिर भी न जाने कितने ही परिवार है, जिन्होंने अपने ही पुरूषों से सच को छुपा लिया । स्त्रियाँ अन्दर ही अन्दर यातनाओं के दंश झेलती रही लेकिन अपनी आपबीती पुरुषों को नहीं बताई क्योंकि बोस्नियाई पुरुष लोग स्त्री की यौन शुचिता के संदर्भ में पितृसत्तात्मक समाजों की तरह ही कट्टर है । संदेह होने पर या प्रमाण मिलने पर त्यागने में देर नहीं करते हैं । इसीलिए सामाजिक बहिष्कार, आजीवन अविवाहित रह जाने और तलाक के भय से हजारों बोस्नियाई स्त्रिओं ने अपने साथ हुए यौन अपराधों की रिपोर्ट तक दर्ज नहीं कराई । दूसरी तरफ देखा जाए तो इस युद्ध में यौन हिंसा का शिकार सिर्फ स्त्रियाँ ही नहीं बनी बल्कि पुरूष और बच्चे भी बने । जिसका रूप तो और भी ज्यादा वीभत्स था । सैनिक शिविरों में कैदियों को आपस में अप्राकृतिक आचरण करने के लिए मजबूर किया जाता था ।                 

इस यात्रा डायरी को लिखते समय लेखिका के मन और मस्तिष्क में कितना विषाद और तनाव रहा होगा । उन त्रासदियों को अभिव्यक्त करने व शब्द देने के लिए लेखिका ने अपने संवेदनशील मन पर कितने युद्ध किये होंगे ? इसको पढ़ना ही एक गहन पीड़ा से गुजरना है तो लिखना तो कितना मुश्किल रहा होगा । इसमें इतिहासबोध को दृष्टि में रखकर सूक्ष्म से सूक्ष्म विवरणों को यथार्थ रूप में प्रस्तुत किया गया है जिससे इसमें निहित कड़वे यथार्थ से गुजरना एक मधुर त्रासदी से गुजरना है । भाषा की दृष्टि से उत्कृष्ट रचना व बीच-बीच में आने वाली शांति निकेतन की यादें, बांग्ला भाषा का प्रयोग व आत्मीय लोगों को लिखे गये पत्र इस डायरी की महती विशेषता है ।

संदर्भ:-

1.     गरिमा श्रीवास्तव,देह ही देश’(2017), राजपाल एंड संज, नई दिल्ली,,पृ. फ्लैप पेज से

2.     गरिमा श्रीवास्तव, देह ही देश’(2017), राजपाल एंड संज, नई दिल्ली, पृ. 67 

3.     वही, पृ. 107

4.     वही,पृ. 138

5.     वही, पृ.134

6.     वही, पृ. 111