स्वाति
चौधरी
हिंदी सिनेमा और भाषा के बदलते संदर्भ
“अगर आप किसी से ऐसी भाषा में बात करते हैं, जिसे वह समझता है, तो वह उसके
दिमाग तक जाती है । यदि आप उससे उनकी ही भाषा में बात करते हैं तो वह उसके ह्रदय
तक जाती है ।”[1] -नेल्सन मंडेला
भारत एक ऐसा देश है जहाँ बहुजातीय, बहुभाषीय, बहुनस्लीय और बहुधर्मीय मानव-समुदाय प्रेम और सौहार्द से
मिलजुल कर रहते हुए एक गौरवशाली राष्ट्र का निर्माण करते हैं । जिसमें विविधताओं
के होने के बावजूद भी हिंदी भाषा सम्पूर्ण क्षेत्रों में समझी जाती है । यह उत्तर
में कश्मीर से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक व पूर्व में आसाम से लेकर पश्चिम
में गुजरात बोली और समझी जाती है । आज हिंदी ने भारत की सीमाओं को लांघकर विश्व के
हर कोने में अपनी पहचान बना ली है । विश्व के करीब 192 देशों में हिंदी आज न केवल
पढाई जा रही है बल्कि बोली भी जा रही है । इसी हिंदी भाषा को विश्वस्तरीय पहचान
दिलाने में सिनेमा की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है । स्वतन्त्रता के पश्चात् भारतीय
संविधान में 14 भाषाओं को स्वीकृति प्रदान की गई थी । तब से लेकर आज तक भारत सरकार
हिंदी सिनेमा में प्रत्येक भाषा पर फिल्म बनाने के लिए सुख-सुविधा प्रदान कर भाषा
को प्रोत्साहित कर रही है क्योंकि प्रत्येक कला विधा की अपनी एक भाषा होती है और
अपना एक मुहावरा होता है । जिस प्रकार से चित्र की भाषा रंग और रेखाएँ और नृत्य की
भाषा पदचाप और मुद्राएँ हैं । उसी प्रकार सिनेमा की भी अपनी एक भाषा है । जिसके
माध्यम से ही यह समाज के लोगों के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है । प्रारंभिक दौर से
लेकर आज तक इसके विकास में हिंदी भाषा का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है । सिनेमा में
शुरू से अंत तक एक कहानी को प्रस्तुत किया जाता है । यह कहानी पात्रों के संवादों
द्वारा व्यक्त की जाती है और इन संवादों को ही फिल्म की भाषा कहा जाता है । इन्हीं
संवादों की भाषा के माध्यम से भारत की गौरवशाली परम्परा, उसका स्वर्णिम इतिहास और भारतीय संस्कृति को विश्व के कोने-कोने में हिंदी
के माध्यम से प्रचारित-प्रसारित करने में हिंदी सिनेमा का महत्त्वपूर्ण योगदान है
। सिनेमा एक ऐसा माध्यम है जो हमारे समक्ष कई संस्कृतियों और कलाओं को प्रस्तुत
करता है । इसमें आरंभिक दौर से लेकर अब तक कई परिवर्तन हुए है । जिससे समय के
साथ-साथ इस हिंदी सिनेमा की तस्वीर भी बदलती रही है ।
आज सिनेमा को लेकर नवीन प्रयोग हो रहे हैं । हिंदी
सिनेमा में संवाद लेखन और पटकथा तक सभी में क्षेत्रीय भाषाओं का प्रभाव देखने को
मिलता है । इस प्रकार के प्रयोग सिनेमा में प्रारम्भ से ही होते आ रहे हैं परन्तु
वर्तमान समय में ये प्रयोग बढ़ते जा रहे हैं । हिंदी सिनेमा भाषा प्रचार की
संस्कृति और जातीय प्रश्नों के साथ निरंतर गतिमान रहा है । उसकी यह प्रकृति बहुत
ही सहज, रोचक, बोधगम्य, संप्रेषणीय और ग्राह्य रही है । हम जब हिंदी सिनेमा का मूल्याङ्कन करते
हैं तो पाते हैं कि भाषा का प्रचार-प्रसार, साहित्यिक कृतियों का फ़िल्मी रूपांतरण, हिंदी गीतों की लोकप्रियता हिंदी की अन्य उपभाषाएँ और अन्य हिंदी बोलियों
का सिनेमा और सांस्कृतिक एवं जातीय प्रश्नों को उभारने में भारतीय सिनेमा का
महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है । हिंदी भाषा की सरंचनात्मकता, शैली, कथन, बिम्ब, प्रतीक, दृश्य विधान आदि मानकों को हिंदी सिनेमा ने गढ़ा है । आज हिंदी
सिनेमा भारतीय समाज, हिंदी भाषा, साहित्य और संस्कृति
का लोकदूत बनकर चारों ओर पहुँचने की दिशा में अग्रसर हुआ है ।
भाषा के आधार पर अगर देखा जाये तो हिंदी सिनेमा में या
यूँ कहे भारतीय सिनेमा में हिंदी भाषा के आलावा अन्य भारतीय भाषाओं में भी सिनेमा
तैयार किया गया लेकिन हिंदी की लोकप्रियता का ग्राफ इन सभी भाषाओं में सबसे ऊपरी
पायदान पर रहा है जिसकी प्रसिद्धि विश्व के हर कोने में फैलती चली गई । 1934 में
जब हिंदी सिनेमा का सफ़र आरम्भ हुआ तो हिंदी भाषा अपने असली रूप में प्रयोग में
लायी जा रही थी परन्तु वर्तमान समय में गैंग ऑफ़ वासेपुर, पानसिंह तोमर जैसी फिल्मों ने हिंदी सिनेमा में प्राचीन परम्परा को
परिवर्तित किया और फिल्मों में हिंदी भाषा के साथ-साथ क्षेत्रीय भाषाओं का भी
प्रयोग होने लगा । आज सिनेमा में भारत के विभिन्न राज्यों की भाषाओं की खुशबू आती
है । आज हिंदी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा ही नहीं है अपितु लोगों के जीवन
सरोकारों, स्पन्दन, भावात्मक
संचार, आर्थिक स्थिति, वैचारिक
बनावट आदि को भी दर्शाती है । भारतीय सिनेमा के प्रारंभिक दौर में ‘राजा हरिश्चंद्र’ फिल्म में
मराठी भाषी दादा साहेब फाल्के ने सब टाईटल्स अंग्रेजी के साथ-साथ हिंदी में भी रखे
थे । जब उन्होंने पहली बार फिल्म में आवाज को शामिल किया तो उसमें हिंदी का ही
प्रयोग किया । फिल्मों में व्यावसायिक संभावनाओं को ध्यान में रखते हुए हिंदी के
विशाल दर्शक वर्ग तक पहुँचने के लिए हिंदी भाषा से बेहतर कोई दूसरा विकल्प नहीं था
। इसीलिए आर्देशिर ईरानी ने भारत की पहली सवाक फिल्म ‘आलमआरा’ 1931 में हिंदी उर्दू मिश्रित हिन्दुस्तानी आम बोलचाल की
भाषा का प्रयोग किया । 1931 में जो 27 फ़िल्में बनी थी इनमें से 22 तो हिंदी में ही
थी। आलमआरा के बाद जब बोलती फिल्मों का प्रारंभ हुआ तो बांग्ला, मराठी आदि की भाषा-संस्कृति ने ही हिंदी सिनेमा को सम्पन्न किया । इस
आरंभिक दौर को हिन्दुस्तानी सिनेमा भी कहा जाता है । हिंदी फ़िल्में प्रारंभ से ही
भारत की सामाजिक संस्कृति की उपज थी । हिंदी भाषी प्रदेशों की प्रतिभाओं तथा
विभिन्न प्रदेशों की सिनेमा समर्पित प्रतिभाओं के सम्पर्क एवं अंतर्क्रिया से
हिंदी सिनेमा का संसार जगमगा उठा । प्रारम्भिक दौर से लेकर वर्तमान समय तक सिनेमा
की भाषा ने कई रंग बदले है । शुरूआती दौर में जहाँ भाषा, साफ, लयबद्ध और सरल थी । वही आधुनिक युग की भाषा के कई रंग
हैं । पहले की भाषा रचनात्मक, लोक और
देशकाल की दृष्टि से अर्थगर्भित होती थी, श्लीलता, चारित्रिकता और भाषाई साफगोई का पूरा ध्यान उसमें रखा जाता था । गुलजार के
गीत ‘मोरा रंग लई ले’ से लेकर अभिताभ भट्टाचार्य के ‘भाग-भाग डी
के बोस’ तक भाषा प्रयोग के बदलते स्वरूप को देखा जा सकता है ।
फिल्मों में भाषा बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है । फिल्म देखकर जब आते हैं
तो सबकी जुबान पर फिल्म के डायलोग्स ही होते हैं । जब भी कोई नई फिल्म आती है तो
सभी को अभिव्यक्ति की नई भाषा मिल जाती है ।
सिनेमा भाषा के प्रचार-प्रसार का एक बहुत ही अच्छा
माध्यम है । सिनेमा में हर तरह की हिंदी के लिए जगह है । फिल्म में पात्रों की
भूमिका व परिस्थतियों को देखकर ही भाषा का प्रयोग किया जाता है । जिससे प्रारंभिक
दौर से लेकर आज तक इसका रूप निरंतर परिवर्तित होता जा रहा है । अगर देखा जाए तो
प्रारंभिक दौर की फ़िल्में अधिकतर देवी-देवताओं, पुराणों और गर्न्थों के चरित्र पर बनती थी जिनमें ज्यादातर में हिंदी भाषा
ही प्रयोग में लायी जाती थी । इसके बाद ऐतिहासिक काल वाली फिल्मों में मुग़ल काल की
प्रधानता होने के कारण उर्दू का अधिक प्रयोग किया जाने लगा । वही ग्रामीण परिवेश
की प्रधानता वाली फिल्मों में हिंदी व प्रांतीय बोलियों का ही अधिक प्रयोग किया
जाता था । जिस तरह ‘मदर इण्डिया’ में हिंदी के
साथ-साथ भोजपुरी भाषा का भी प्रयोग किया गया है व खेती छोड़कर गाँव से शहर में जाकर
रहने वाले किसान की व्यथा कथा को आधार बनाकर बिमल राय द्वारा बनायी गयी फिल्म ‘दो बीघा जमीन’ में भी हिंदी भाषा का प्रयोग किया व गानों में भोजपुरी
भाषा के शब्दों की अधिकता रही ।
70 के दशक में अगर देखा जाये तो हिंदी सिनेमा में सशक्त
और समानांतर सिनेमा का आरम्भ हुआ । जिसमें श्याम बेनेगल और गोविन्द निहलानी जैसे
फ़िल्मकारों ने सिनेमा की भाषा और हिंदी के साथ-साथ उच्चारण की स्पष्टता पर भी
ध्यान दिया । दुबे जी भी हिंदी भाषा के प्रबल समर्थक थे । जिसे उनकी जुनून, मंडी, निशांत, अंकुर, भूमिका आदि फिल्मों में देखा जा सकता है । इस दशक में समकालीन साहित्यकारों
ने भी हिंदी भाषा के लिए अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया । जिसमें तीसरी कसम, सद्गति, सारा आकाश जैसी फिल्में साहित्यिक कृतियों पर कालजयी
निर्माण के रूप में जानी जाती है । ऋषिकेश मुखर्जी ने भी सत्यकाम, अनाड़ी, अनुपमा चुपके-चुपके, खट्टा-मिठ्ठा, गोलमाल जैसी उत्कृष्ट फ़िल्में बनायीं । इस दौर में
मुस्लिम साहित्य से जुड़े हुए गीतकार साहिर लुधियानवी, शकील बदायूनी, कैफ़ी आजमी, सुनील दत्त, राजेन्द्र कुमार आदि भी अपना अधिपत्य जमा चुके थे । ये सभी उर्दू के अच्छे
जानकर थे । जिसके कारण उर्दू गीत, गजल, कव्वालियों का हिंदी सिनेमा में प्रमुख स्थान रहा । 80 के दशक में हिंदी
सिनेमा की भाषा में बम्बईया पुट आने लगा । जिससे ऐसे ही आम घिसे-पिटे शब्दों का
अधिक प्रयोग किया जाने लगा । जिसका प्रभाव गानों पर भी पड़ा ।
90 के दशक में भाषा और भी अधिक बिगड़ गयी । इस दशक में
बिगड़ी भाषा ने हिंदी सिनेमा का रूप ही विकृत कर दिया । पैसों के लिए ही सब कुछ
किया जाने लगा । जो सिनेमा पहले समाज का प्रतिबिम्ब होता था, समाज को जागृत करता था वह आज पैसा कमाने का जरिया मात्र बनकर रह गया है ।
आज अश्लील शब्दावली का अधिक प्रयोग किया जा रहा है । दो भागों में पूरी हुई अनुराग
कश्यप की फिल्म गैंग ऑफ़ वासेपुर’ भी हिंदी
सिनेमा में सिने भाषा को लेकर काफी चर्चित हुई । काशीनाथ सिंह के उपन्यास ‘कासी का अस्सी’ पर बनी फिल्म ‘मौहला अस्सी’ को भी गालियों के अधिक प्रयोग होने के कारण काफी विरोधों का सामना करना पड़ा
था । ‘तू चीज बड़ी है मस्त-मस्त’ गाने में भी लड़की को एक इस्तेमाल की जाने वाली चीज के रूप में प्रदर्शित
किया जाता है । इस तरह वर्तमान सिनेमा की शब्दावली में काफी अश्लीलता और खुलापन
देखा जा सकता है । “जिस रचनात्मक उत्कृष्टता को अदबी हल्कों में ‘महत्त्वपूर्ण’
माना जाता है, अनेक फ़िल्मी गीतकारों ने न सिर्फ उसे क्षतिग्रस्त किया है बल्कि
फूहड़ता और अश्लीलता की हद तक जाकर अपनी लेखनी और रचनाकर्म दोनों को लांछित किया है
। वस्तुतः इस प्रवृत्ति के लिए सिर्फ गीतकारों को दोष देना उचित नहीं होगा, भारत
में ‘बाजारवाद’ के प्रमोशन और ‘ग्लोबलाइजेशन’ के कारण जनरुचि में बदलाव आये हैं,
उसी के कारण फूहड़ता, अश्लीलता और विकृतियाँ समस्त कला माध्यमों पर छाती जा रही है ।”[2]
सिनेमा में अगर बोलियों के प्रयोग को देखा जाये तो कहा
जा सकता है कि हिंदी बोलियों का सिनेमा अपनी तकनीकी अपरिपक्वता तथा अपने सीमित
संसाधनों के कारण भले ही अंतराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान नहीं बना पाया हो किन्तु
इन बोलियों की शक्ति को बचाएँ रखने की सम्भावना उसने जरूर दिखाई है । जैसे जवरीमल्ल
पारख कहते हैं कि “बिमल राय हिंदी में
सिनेमा बनाते हैं, लेकिन बार-बार वे हिंदी में बंगला समाज को प्रस्तुत करते हैं,
चाहे वह ‘देवदास’ में हो या ‘परिणीता’ में । जब वे ‘यहूदी’ में बंगाली समाज के बाहर
जाते हैं तो वे हिंदी भाषी समाज की तरफ नहीं मुड़ते बल्कि हिन्दुस्तानी से दूर रोम
और मिश्र के इतिहास की तरफ मुड़ते हैं । गुजरात के महबूब खान भी अपनी महाकाव्यात्मक
फिल्म ‘मदर इण्डिया’ में गुजराती पृष्ठभूमि में किसान समस्या को उठाते हैं । इसी सच्चाई
को हम वी. शांताराम से श्याम बेनेगल तक लगातार देख सकते हैं । वे हिंदी भाषा में
तो सिनेमा बनाते हैं, लेकिन उस यथार्थ को लेकर जिसका सम्बन्ध या तो उनकी मातृभाषा
से है या फिर किसी एक भाषाई क्षेत्र से उसे जोड़ना कठिन है । ‘गंगा जमुना’ या ‘लगान’
जैसी फ़िल्में, जिनमें भोजपुरी या अवधी का प्रयोग किया गया है हिंदी भाषी क्षेत्र
की फ़िल्में नहीं कही जा सकती । स्थानीय स्पर्श देने के लिए इनमें क्रमशः भोजपुरी
और अवधी का प्रयोग किया गया है ।”[3]
हिंदी फिल्मों के विस्तार का प्रभाव क्षेत्रीय भाषाओं पर
भी पड़ा है और इसी प्रभाव के कारण हरियाणवी, पंजाबी, राजस्थानी, बुन्देली, छत्तीसगढ़ी,
भोजपुरी आदि क्षेत्रीय भाषाओं में फ़िल्में बननी शुरू हुई । हिंदी की सहायक भाषाएँ
होने के कारण अपने क्षेत्रों के अतिरिक्त अन्य हिंदी भाषी क्षेत्रों में भी ये
चर्चित हुई । भोजपुरी फ़िल्में भी पहले अपने क्षेत्रों तक ही सीमित थी लेकिन अब
महाराष्ट्र, उड़ीसा, असम, बंगाल और मध्यप्रदेश में भी काफी प्रचलित है । “हिंदी
फिल्मों पर भोजपुरी का इतना जबरदस्त प्रभाव है कि हिंदी की अधिकांश मसाला फ़िल्मों
में भोजपुरी गीत, संवाद, या पात्र रखना एक आम बात हो गई है। भोजपुरी फ़िल्में कम लागत
में अधिक लाभ देती है । यही कारण है कि स्वतन्त्रता के बाद लगभग दो सौ से ज्यादा
फ़िल्में बन चुकी है और काफी संख्या में आज भी निर्माणाधीन है इनमें कुछ चर्चित
फ़िल्में -‘सबहिं नचावत राम गोसाई’, ‘करार’, ‘नथुनियाँ’, ‘तोहार किरिया’,
‘पैजनियां’ आदि है ।”[4]
आज हिंदी सिनेमा को जरूरत है कि क्षेत्रीय भाषाओं में फ़िल्में अधिक से अधिक बने
जिससे की हिंदी भाषा का वटवृक्ष और भी ऊर्जा स्त्रोत विकसित कर सके क्योंकि इन
विभिन्न प्रकार की बोलियों को बोलने वाला सिनेमा भी अंततः हिंदी भाषा के विकास में
महत्त्वपूर्ण साबित होता है । जिससे राष्ट्रीय एकता को भी दृढता मिलती है । भाषा
में समाज और संस्कृति का प्रवाह रहता है । हिन्दुस्तानी समाज में हिंदी सिनेमा ने
विभिन्न राष्ट्रीयता, सामाजिक ढाँचा, पारिवारिक
रिश्ता, आतंकवाद, कृषि, किसान, बाजारवाद, प्रवासी जीवन आदि अनेक मुद्दों को उठाया है । हिंदी सिनेमा ने अपने कथानक, संवादों, पात्रों और भाषा की अभिव्यक्ति के आधार पर इन मुद्दों की
तरफ हमारा ध्यान आकर्षित किया है ।
हिंदी फिल्मों ने हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार के साथ
हिंदी भाषी समुदाय की चुनौतियों, चाहतों तथा
संघर्ष सपनों को भी विश्व-फलक पर पहुँचाने में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान प्रदान
किया है । हिंदी भाषा का विश्व व्यापी प्रसार इन मुद्दों को संबोधित किये बिना
अधुरा ही माना जाता है लेकिन हिंदी सिनेमा ने अपनी इस भूमिका का बखूबी निर्वहन
किया है । दुनिया की कोई भी भाषा अपने नए माहौल से अनुकूलन किये बिना अपना
अस्तित्व स्थापित नहीं कर सकती । समाज की नई हलचलों को पहचानने घटनाओं को जानने
तथा उनके अभिलेखन के लिए एक भाषा का अपना ताना-बाना बदलना ही पड़ता है। हिंदी भाषा
भी नवीन चुनौतियों के वहन के लिए नयी विधाओं और नए नए रूपों में हमारे सामने आई है
। हिंदी भाषा में सिनेमा निर्माण के साथ-साथ उर्दू को प्रमुख सहायिका भाषा के रूप
में प्रयोग किया है गीतों और संवादों के लिए दृश्यता का समावेश किया । भाषा और
बिम्ब के अंतर की पहचान बढ़ाई । नयी-नयी शैलियों जैसे मुम्बईयां भाषा को भी सिनेमा
ने मानक बनाया । नए-नए कोड, मिथकों, प्रतीकों का ईजाद किया । पटकथा-लेखन, संवाद लेखन एवं गीत-संगीत लेखन जैसी कई नयी विधाओं का सृजन किया । हिंदी
सिनेमा ने हिंदी भाषा को तकनीकी अनुकूलन के लायक बनाया । इस प्रकार से कहा जा सकता
है कि हिंदी सिनेमा ने हिंदी भाषा के नए नए रूप-रंग और साँचे-ढाँचे को गढ़ा है ।
हिंदी साहित्य, हिंदी भाषा और हिंदी की अन्य उपबोलियों भाषाओं पर हिंदी
सिनेमा का गहरा प्रभाव पड़ा है ।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि भाषा ही सिनेमा की
शक्ति है जिससे ही आज हिंदी सिनेमा अपनी उत्कृष्टता की चरम सीमा तक पहुँचा है । अपने
प्रारंभिक दौर से लेकर आज तक उसके अनेक प्रतिमान बदले है जिससे कभी स्थानीय भाषाओं
का व कभी उर्दू मिश्रित शब्दावली का प्रयोग समय और समाज की माँग के अनुसार किया
गया है । भाषा, शैली, प्रतीक, बिम्ब आदि मानदंडों पर भी अनेक प्रयोग किये गए ।
आलमआरा से लेकर पद्मावत और मुक्केबाज तक भाषा के अनेक रूप देखे जा सकते हैं ।
सिनेमा के लिए भाषा का बहुत महत्त्व है । भाषा समाज की अभिव्यक्ति का माध्यम होती
है और सिनेमा समाज के लोगों के लिए ही होता है, समय और समाज से ही सिनेमा शब्दावली
ग्रहण करता है । जिससे प्रारंभ से लेकर आजतक भाषा के कई रूप आये है । भारतीय समाज
की भाषा हिंदी होने के कारण हिंदी के विकास में सिनेमा ने अपनी महत्त्वपूर्ण
भूमिका अदा की है । भाषा पर ही फिल्म की सफलता निर्भर करती है । जिस फिल्म में
भाषा की शक्ति जितनी अधिक होती है । वह फिल्म उतनी ही सार्वभौमिक और सर्वकालिक बन
जाती है । इसी भाषा की सक्षमता के दम पर आज हिंदी सिनेमा अपना परचम लहरा रहा है और
हिंदी भाषा और भोजपुरी, राजस्थानी, हरयाणवी, मैथिली आदि उपभाषाओं में भी
सफलतापूर्वक फिल्मों का निर्माण किया जा रहा है ।
संदर्भ ग्रंथ :-
1.
नया ज्ञानोदय,
संपादक – लीलाधर मंडलोई, पृ. सं. 1, अंक-172, जून 2017
2.
संपादक मृत्युन्जय,
‘सिनेमा के सौ बर्ष’, ‘शिल्पायन’, (2011) तृतीय संस्करण, शाहदरा, दिल्ली पृ. सं. 343
3.
पारख जवरीमल्ल,
‘साझा संस्कृति, साम्प्रदायिक आतंकवाद और हिंदी सिनेमा’ (2012 ), ‘वाणी प्रकाशन’ दरियागंज,
नयी दिल्ली पृ. सं. 245-246
4.
संपादक मृत्युन्जय,
‘सिनेमा के सौ बर्ष’, ‘शिल्पायन’, (2011) तृतीय संस्करण, शाहदरा, दिल्ली पृ. सं. 396
स्वाति चौधरी
शोधार्थी, हिंदी विभाग
हैदराबाद
केन्द्रीय विश्वविद्यालय, हैदराबाद
मो. 9461492924
ईमेल- swatichoudhary212@gmail.com