मुझे यह बताते हुए अत्यंत हर्ष हो रहा है कि एक लंबे और कठिन संघर्ष के बाद भारत के एक बेहतरीन विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट की उपाधि पाने का अंतिम चरण (9 नवम्बर 2022) को सम्पन्न हुआ। मेरे माता-पिता, परिजन और गुरुजनों के शुभाशीर्वाद से तथा स्नेही मित्रों की सहायता से हिंदी विभाग, हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय, हैदराबाद से मैंने 09 नवम्बर 2022 को 'हिंदी यात्रा साहित्य का सांस्कृतिक अध्ययन' विषय पर पी-एच.डी शोध-कार्य सफलतापूर्वक पूर्ण कर लिया है। यह दिन आजीवन आनंददायी तथा अविस्मरणीय रहेगा। इस अवसर पर अतीत की स्मृतियाँ अनायास ही उभर आयी । आज इस सफलता के पीछे मुड़कर देखती हूँ तो बहुत संवेदनशील और भावुक क्षण याद आते हैं। जीवन में उन तमाम ऊंचाईयों तक पहुंचने के लिए हर किसी इंसान ने धूप और छांव के पल देखें होंगे... उसी तरह मैंने भी अपने ग्रामीण जीवन से लेकर इस सीढ़ी तक अनेक उतार- चढ़ाव देखे लेकिन हिम्मत, अपने आप पर विश्वास और धैर्य ने हमेशा साथ दिया |
यायावर ' मैं हूँ ना'
Thursday, November 10, 2022
पी-एच.डी (हिंदी)
मुझे यह बताते हुए अत्यंत हर्ष हो रहा है कि एक लंबे और कठिन संघर्ष के बाद भारत के एक बेहतरीन विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट की उपाधि पाने का अंतिम चरण (9 नवम्बर 2022) को सम्पन्न हुआ। मेरे माता-पिता, परिजन और गुरुजनों के शुभाशीर्वाद से तथा स्नेही मित्रों की सहायता से हिंदी विभाग, हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय, हैदराबाद से मैंने 09 नवम्बर 2022 को 'हिंदी यात्रा साहित्य का सांस्कृतिक अध्ययन' विषय पर पी-एच.डी शोध-कार्य सफलतापूर्वक पूर्ण कर लिया है। यह दिन आजीवन आनंददायी तथा अविस्मरणीय रहेगा। इस अवसर पर अतीत की स्मृतियाँ अनायास ही उभर आयी । आज इस सफलता के पीछे मुड़कर देखती हूँ तो बहुत संवेदनशील और भावुक क्षण याद आते हैं। जीवन में उन तमाम ऊंचाईयों तक पहुंचने के लिए हर किसी इंसान ने धूप और छांव के पल देखें होंगे... उसी तरह मैंने भी अपने ग्रामीण जीवन से लेकर इस सीढ़ी तक अनेक उतार- चढ़ाव देखे लेकिन हिम्मत, अपने आप पर विश्वास और धैर्य ने हमेशा साथ दिया |
Tuesday, May 10, 2022
वो स्पर्श
बस! एक बार बता दो ...
Saturday, December 25, 2021
सपनों की दरकार
सपनों की दरकार
रीतिका निर्निमेष आकाश में टिमटिमा रहे तारों को
देख रही थी । आकाश एकदम साफ था, हमेशा की तरह आज भी ध्रुव तारा कुछ अधिक चमक के
साथ अपनी उपस्थिति प्रस्तुत कर रहा था । चाँद भी पूर्णमासी के चाँद की तरफ अपनी
चौदह कलाओं के साथ निर्मलता बरसा रहा था । बाहर सब कुछ एकदम शांत था लेकिन अंदर एक
सोता लगातार बहा जा रहा था । रीतिका ने एक गहरी साँस लेकर फिर घड़ी की तरफ देखा तो
रात के दो बज रहे थे, आज ये चौथी रात है लेकिन नींद कहीं आस-पास में भी दिखाई नहीं
दे रही है, ना चाहते हुए भी बार-बार वही ख्याल आता है और नींद को अपने में दबोच कर
ले भागता है । आखिर ऐसा भी क्या हुआ था उस दिन जो आज तक भीतर से कचोट रहा है । यही
सब सोचते हुए पास सो रहे अर्णव की तरफ देखा । वह तो अभी भी बेखबर होकर खर्रटे भर
रहा था, उसकी ये खर्राटों की आवाज मुझे और ज्यादा अंदर से भेदती हुई चली जा रही
थी..
वो बीस अक्टूबर की बेला जब हम एक-दूजे के हुए थे
और सभी ने हँसी-खुशी के साथ विदा करके अपने कंधों का भार हल्का किया था । खुश
क्यों नहीं होते बड़ी मन्नतों के बाद ये दिन आया था जिससे बुढ़ाएं पिता के ये कंधे
आज भारहीन महसूस कर रहे थे । इस घर से जुदाई लेकिन फिर वही नए घर का प्यार-दुलार, जिससे
खुशी की लहरी में दिन भागे जा रहे थे लेकिन किसे पता था कि इतनी जल्दी ही प्यार ही
टीस बनकर रह जायेगा । अर्णव को कितनी बार मना किया था नहीं, हमें इस तरह की
लापरवाही नहीं करनी हैं, लेकिन उस समय कहाँ पता था समागम के क्षण सुखों में लीन
होने का क्षण आज ये दिन दिखा देगा । आज एक बार फिर मसूसस कर रही हूँ उस पल को, उस
क्षण को जिस दिन हम अपनत्व में लीन हुए थे शायद उसी से ये बीजारोपण हुआ होगा ।
उसी के दो महीने बाद मैंने तुम से बेखबर तुम्हारे
आने की पहली पुकार सुनी है । जिसे सिर्फ मैं अंदर से महसूस कर रही हूँ क्या ये सच
है ? मुझे नहीं पता सच क्या हैं लेकिन मैं तुम्हें महसूस कर रही हूँ, सही गलत के
निर्णय का मापदंड मेरे पास नहीं हैं, आपकी उपस्थिति का अंदाजा मैं एक ही पैमाने से
लगा सकती हूँ जिसके इंतजार की घड़ियों को तुमने समाप्त करके कर दिया है । जिससे मैं
हमेशा भागती रहती थी लेकिन आज उसी एक-एक दिन की गिनती कर रही हूँ, चौथा, पाँचवा, छठा,
आज सातवाँ दिन हो गया लेकिन दो महीने होने के बाद भी वो दिन अभी तक नहीं आया, कभी सोचा
नहीं था कि शादी के बाद इस दिन का इंतजार करके इसके लिए तरसना पड़ेगा । अर्णव बार-बार
एक ही सवाल पूछते “आया क्या ? तुम बिल्कुल भी फिक्र मत करो । मैं हूँ ना तुम्हारे साथ
तुम्हें कुछ नहीं होगा, बहुत जल्दी ही सब ठीक हो जाएगा ।” लेकिन अब और कितना इंतजार
करूँ, कितनी और रातें टिमटिमाते तारों को देखकर निकालूँ । अब मैं इससे ज्यादा इंतजार
नहीं कर सकती । मुझे इन सब से मुक्ति चाहिए । वापस मुझे मेरी वहीं हँसती खेलती ज़िंदगी
चाहिए । मैं मेरी उसी दुनिया में वापस जाना चाहती हूँ । जहाँ मेरी मेहनत, उम्मीदें
और सपने थे । उसी के दम पर मैं अपनी अभिलाषाओं को पूरा करना चाहती हूँ । लेकिन अब ये
सब सुनने वाला यहाँ कौन बचा था । यही सब सोचते-सोचते रीतिका एक बार फिर विचारों की
इस उथल-पुथल से दूर हटकर घड़ी की सुईयों की ओर नजर डालती है । अब तो घड़ी की सुईयां भी
संकेतों में कह रही थी ‘चार बज गए है । रोको, इस उथल-पुथल को और सो जाओ ।’ लेकिन विचारों
का प्रवाह घड़ी की टिक-टिक को अपने में दबाकर भागा जा रहा था । और चलते प्रवाह के बीच
सूरज अपनी लालिमा को साथ लिए मुँह निकाल रहा था, चिड़िया चहचहा रही थी और पक्षियों के
झुंड कलरव करते हुए उठने का संकेत कर रहे थे । इसी तरह फिर से नए दिन की शुरुआत । आज
कुछ अच्छा हो इसी कामना के साथ रीतिका दो नाम भगवान के लेकर उठती है । जिस भगवान को
वह कभी कोई शिकायत नहीं करती थी आज उसी के सामने वह अपने सपनों की भीख माँगती है ।
“क्या हुआ रीतिका, कुछ खुशखबरी अब तो सुना दो । अब
तो दो महीने से ज्यादा हो गए ।” अर्णव इतना कहकर रीतिका को अपनी गोद में बैठा लेता
है । इतना-सा स्पर्श पाते ही रीतिका के अंदर का पारा बहकर बाहर आ जाता है, वह फफक-फफक
कर रोने लगती है । अर्णव भी अंदर ही अंदर फूट पड़ता है लेकिन वह रीतिका के सामने अपने
आप को कमजोर नहीं करना चाहता । इसीलिए अपनी सारी हिम्मत को समेटकर रीतिका के आँसू पोंछता
है और उसे ढाँढ़स बंधाता है “कुछ नहीं होगा रीतिका, मैं पूरे कुरूँगा तुम्हारे सपने
। अब इससे ज्यादा इंतजार हम नहीं कर सकते, आज ही डॉक्टर के पास चलेंगे, जल्दी ही सब
ठीक हो जाएगा । डॉक्टर शब्द को सुनकर रीतिका को थोड़ी शांति मिली । वही आखिरी उम्मीद
है अब सिर्फ ।
सुबह के दस बज रहे है । अर्णव और रीतिका डॉक्टर के
पास इंतजार की कड़ी में पाँचवे स्थान पर खड़े है । एक-एक करके उनके आगे के लोग चले जा
रहे हैं और अंतत: अब रीतिका और अर्णव डॉक्टर के सामने बैठे है । दोनों ही अपने अंदर
एक गहरे विषाद, चिंता और उत्सुकता को समेटे सोच रहे हैं कि आगे क्या होगा । डॉक्टर
सब कुछ जाँच-परख करके कहता है “बधाई हो आपको, आप माँ बनने वाली हो ।” ये शब्द सुनते
ही रीतिका का दिल सहम-सा गया और अर्णव को लगा कि उसके नीचे की जमीन कोई खिसका कर ले
जा रहा है । हर्ष और विषाद की एक गहरी रेखा दोनों के शिकन पर उभरकर आ गयी थी जिससे
हर्ष लगातार गायब होता जा रहा था और विषाद अपनी पूर्णता के साथ उभर रहा था । जिस शब्द
को सुनने की हिम्मत रीतिका और अर्णव नहीं जुटा पा रहे थे वही शब्द आज डॉक्टर खुशी-खुशी
सुना रहा था ।
एक गहरी खामोशी के बाद अर्णव हिम्मत जुटाकर कहता है
–“नहीं डॉक्टर साहब, अभी हमें बच्चा नहीं चाहिए, अभी तो शादी के दो महीने ही हुए है,
हम अभी इसके लिए किसी भी तरीके से तैयार ही नहीं है । हमारे सारे ख्वाब तो अभी अधूरे
ही है । इस आगामी ख्वाब को हम अभी पूर्ण नहीं करना चाहते ।” एक साँस में ही अर्णव ने
अपनी बात कह दी । रीतिका सबकुछ भूलकर धीरे से अपने पेट को हाथों से स्पर्श करके उस
नए मेहमान की उपस्थिति को महसूस कर रही थी । एक तरफ अधूरे ख्वाब और दूसरी तरफ से किलकारी
। दोनों आपस में उलझ कर अपने आप को बचाने के लिए रीतिका से विनती कर रहे थे । तभी अचानक
से रीतिका का ध्यान टूटा – डॉक्टर पूछ रहे थे “रीतिका तुम बताओं क्या चाहती हो । इस
बच्चे को नई दुनिया दिखाने के लिए तैयार हो ।” क्या बोलती रीतिका उसके तो शब्द ही बच्चे
और अधूरे सपनों में उलझते चले जा रहे थे । कुछ देर चुप रहकर ममत्व को बलि देकर अपने
सपनों की एक उड़ान भरते हुए अपनी गर्दन ‘ना’ के जवाब में हिला दी । डॉक्टर – “एक बार
फिर सोच लो आप दोनों । अगर नहीं चाहते तो फिर इसका समाधान गर्भपात के रूप में ही हमें
करना होगा ।”
गर्भपात का शब्द सुनते ही अर्णव और रीतिका की आँखें
एक-दूसरे से मिलती है और देखते ही दोनों के आँसू लुढ़ककर गिरते हैं । नजरे हटाकर अर्णव
डॉक्टर से कहता है- “इसके लिए क्या करना होगा । रीतिका को तो खतरा नहीं है ।” नहीं,
नहीं डरने की कोई बात नहीं है, अभी ज्यादा समय नहीं निकला है कुछ टेबलेट्स की मदद से
ही यह आसानी से हो जाएगा । बस थोड़ी परेशानी रक्तस्त्राव की हो सकती है । वो अगर नहीं
रुके तो तुम्हें फौरन मेरे पास आना होगा । वैसे कुछ नहीं होगा । मैं सब संभाल लूँगा
। आप बिल्कुल भी चिंता मत कीजिए । रीतिका फिर विचारों के प्रवाह में बही जा रही थी
। कभी सोचा नहीं था कि ये दिन भी देखने को मिलेंगे । यही होती है क्या शादी ? प्यार
का नतीजा इस रूप में निकल कर आता हैं क्या ? माँ-बाबा मे मुझे कितने नाज़ों से पाला
था और आज मैं ही अपने अंश को इस तरह बाहर फेंक रहूँ । तभी डॉक्टर कहता है “ये लीजिए
कुछ टेबलेट्स, इन्हें एक निश्चित अंतराल के बाद लेना है और डरना नहीं है बिल्कुल भी
। कुछ भी परेशानी होते ही तुरंत आ जाना ।”
रीतिका अपने ममत्व को दबाकर दवाईयां खाने की कोशिश कर रही है लेकिन सारी कोशिशों के बावजूद एक बार के लिए भी उसका मुँह नहीं खुल रहा है । अर्णव बार-बार हिम्मत दिला रहा है “भावनाओं को किनारे कर अपने-आप को मजबूत करो रीतिका । आओ मेरी गोद में यहाँ बैठकर बस एक बार मुँह खोलो । और आखिरकार भावनाओं पर दृढ़ निश्चय की विजय हुई । लेकिन इसी विजय से रीतिका निढाल होकर गिर जाती है और इंतजार करती रहती है । अपने ममत्व के बाहर निकलने का । जल्दी ही इंतजार की घड़ियाँ खत्म होती है और वह अपने लगातार रिसते ममत्व को कपड़े में दबाकर बार-बार डस्टबीन की तरह कदम बढ़ाती है....
स्वाति चौधरी
Saturday, April 24, 2021
हिन्दी विदेशी-यात्रा साहित्य में महिलाओं का योगदान स्वाति चौधरी
हिन्दी विदेशी-यात्रा साहित्य
में महिलाओं का योगदान
स्वाति
चौधरी
देखा
जाए तो मनुष्य आदिकाल से ही यायावरी प्रवृत्ति का रहा है । साधारणतया या विभिन्न
उद्देश्यों को लेकर की जाने वाली घुमक्कड़ी के कारण उसकी यह यायावरी प्रवृत्ति आज
तक बनी हुई है । वैसे देश-दुनिया की सैर की इच्छा मनुष्य-मात्र के मन में होती है, पर यात्राओं के सम्पूर्ण इतिहास पर नजर डाली जाए तो यह तथ्य सामने आता है
कि प्राचीन काल से ही यात्राओं को साहसिक कार्यों की श्रेणी में शामिल करके उसे
केवल पुरुषों के अधिकार क्षेत्र में रखा गया, स्त्रियों को
हमेशा इसमें सिर्फ सहयात्री के रूप में ही देखा गया है। यह एक तथ्य है कि पुरुष
वर्चस्ववादी समाज में स्त्रियों को घर की चारदीवारी के भीतर बंद रखने की कोशिश की
जाती रही है, उसे पुरुष की तुलना में कमतर पेश करने का
लगातार प्रयास किया जाता रहा है, पर यह भी सत्य है कि जब-तब
स्त्रियों ने भी पुरुषों के बरअक्स अपनी क्षमताओं और प्रतिभाओं को दुनिया के सामने
साबित किया है । यद्यपि पहले उसे अपनी प्रतिभाओं को साबित करने का मौक़ा बहुत कम
मिलता था पर आज स्त्री किसी भी मायने में पुरुष से कम नहीं है । वह लगातार पुरुष
के कंधे से कंधा मिलाकर चल रही है । अब वह घर की चारदीवारी को लांघकर लगभग हर
क्षेत्र में अपने कीर्तिमान स्थापित कर रही है, साहित्य के
क्षेत्र में भी । और यात्रा-साहित्य के मामले में तो उसका कीर्तिमान दोहरा हो जाता
है । कहाँ घर से निकलने पर पाबंदी और कहाँ देश-विदेश की यात्राएँ ! और फिर उन
यात्राओं के अनुभवों के सहारे साहित्य-सर्जन !
‘यात्रा’
एक स्त्रीलिंग शब्द है जिसकी व्युत्पत्ति संस्कृत की ‘या’ धातु के साथ ‘ष्ट्रन’
प्रत्यय के योग से हुई है । (या+ ष्ट्रन) जिसका अर्थ है जाना । यात्रा को अरबी भाषा
में ‘सफ़र’ कहा जाता है और इसे विभिन्न उद्देश्यों, स्वरूप, कार्य व्यापार आदि के आधार पर भिन्न-भिन्न
नामों से जाना जाता है । भ्रमण, घुमक्कड़ी, यायावरी, चलवासी, खानाबदोशी,
आना-जाना, घूमना, भटकना,
आवारागर्दी करना, तीर्थाटन, मेला, फेरी आदि विभिन्न शब्दों का प्रयोग इसके लिए
किया जाता है । गमन, प्रस्थान आदि अर्थों में भी इस शब्द का
प्रयोग होता है । इस प्रकार देखा जाए तो सामान्यत: ‘यात्रा’ शब्द का अर्थ है एक
स्थान से दूसरे स्थान तक जाना ।
इसी
तरह यात्रा-साहित्य को अगर देखा जाए तो कहा जा सकता है कि यात्रा के दौरान जो भी
बाह्य और आंतरिक विचार मन में आते हैं वे मानस-पटल पर अंकित हो जाते हैं और इन्हीं
मानस-पटल के विचारों को जब लिपिबद्ध किया जाता है तो वहीं से यात्रा साहित्य का
जन्म होता है । कोई भी व्यक्ति अपनी यात्रानुभूतियों को जब कलात्मक रूप देकर
संवेदना के साथ प्रस्तुत करता है तो उसे यात्रा-साहित्य कहा जाता है ।
यात्रा-वृतांत केवल देखे गए स्थानों का विवरण मात्र नहीं है अपितु इसमें यात्रा के
दौरान देखे गए स्थानों, स्थलों, भवनों, भोगी हुई घटनाओं एवं उससे सम्बन्धित
अनुभूतियों को कल्पना एवं भाव-प्रवणता के साथ प्रस्तुत किया जाता है ।
हिन्दी
यात्रा-साहित्य के विकासात्मक अध्ययन के क्रम में यह तथ्य सामने आता है कि
यात्रा-साहित्य लेखन में पुरुषों का वर्चस्व होने के बावजूद इसके शुरुआती दौर में
महिला साहित्यकारों का भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है । यात्रा-साहित्य की प्रथम
प्रकाशित पुस्तक ही एक महिला साहित्यकार की है । हरदेवी की ‘लंदन यात्रा’ को इस
क्षेत्र की प्रथम पुस्तकाकार रचना माना जाता है । हिन्दी साहित्य के इतिहास को अगर
देखा जाए तो आदिकाल में यात्रा साहित्य नहीं देखने को मिलता है लेकिन मध्यकाल में
साहित्य मुद्रित की अपेक्षा मौखिक विधा के रूप में अधिक प्रचलित था । कुछ साधन
सम्पन्न लोग ही अपनी शौर्य गाथाएं लिखवाते थे । कुछ साधु-संत भी अपने भक्तिमय
उद्गार कागज पर उतारते और कुछ अपने शिष्यों से लिखवाते थे । अतः इस दौर में यात्रा
साहित्य हस्तलिखित रूप में बहुत कम मात्रा में उपलब्ध होता है । फिर भी,
इस युग के हिन्दी यात्रा ग्रंथों में काशी नागरी प्रचारिणी सभा से
प्राप्त दो हस्तलिखित यात्रा ग्रंथों को देखा जा सकता है, जिसमें
पहला गुसाई विठ्ठल जी की हस्तलिपि में ‘वनयात्रा’ तो दूसरा जीवन जी की माँ का
‘वनयात्रा’ उपलब्ध होता है । सुरेन्द्र माथुर लिखते हैं कि “दूसरा हस्तलिखित ग्रंथ
‘वनयात्रा’ नामक है । इसका रचनाकाल संवत
१६०९ है । इसका रचनाकाल का वाक्य इस प्रकार दिया हुआ है : ‘संवत सोलै सै ना साल रे
। भादरवों वदि द्वादशी सार रे ।। इसकी लेखिका श्रीमती जीमनजी की माँ (वल्लभी
सम्प्रदायी) हैं ।”[1]
इस युग में जीमनजी की माँ के ‘वनयात्रा’ (1609वि.) के अतिरिक्त अयोध्या नरेश
बख्तावर सिंह की पत्नी का ‘बदरी यात्रा कथा’ (1888वि.) ग्रन्थ भी उल्लेखनीय है ।
इस प्रकार देखा जा सकता है कि प्रारम्भिक समय से ही पुरुषों के साथ-साथ स्त्रियाँ
भी यात्रा साहित्य में अपना योगदान दे रही थीं ।
उपर्युक्त
छुटपुट लेखन के अलावा अन्य गद्य विधाओं की तरह यात्रा-साहित्य की परंपरा भी
मुख्यतः भारतेन्दु युग से आरम्भ होती है । इस काल में रेलमार्गों के विकास,
मुद्रण व खड़ी बोली के प्रसार के कारण हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में
अनेक यात्रा लेख प्रकाशित हुए । ऐसे कुछ लेख इस प्रकार हैं- गृहलक्ष्मी पत्रिका
में प्रकाशित ‘युद्ध की सैर’ जिसमें युद्ध की समाप्ति पर युद्ध क्षेत्र की
विनाशात्मक स्थिति का चित्रण किया गया है, श्रीमती सत्यवती
मलिक की ‘कश्मीर की सैर’ और ‘अमरनाथ यात्रा’ आदि । पुस्तक रूप में प्रकाशित प्रथम
यात्रा ग्रंथ हरदेवी की ‘लंदन यात्रा’ है, यह बताया जा चुका
है । “मुद्रण-कला विकास पर हो ही रही थी, पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने के अतिरिक्त धीरे-धीरे यात्रा-साहित्य
के ग्रंथों का मुद्रण भी प्रारंभ हुआ । इस
मुद्रित रूप में यात्रा-साहित्य का सर्वप्रथम ग्रंथ जो देखने को मिल सका है वह
‘लंदन-यात्रा’ नाम से है । इसकी लेखिका
हरदेवीजी हैं । इनकी यह पुस्तक ओरियंटल प्रेस, लाहौर से सन
१८८३ ई। में प्रकाशित हुई थी ।”[2] इसमें
लाहौर से बंबई पहुँचने और फिर बंबई से लंदन तक की जहाज यात्रा के साथ-साथ लंदन में
बिताये दिनों का विस्तृत वर्णन किया गया है । इसके बाद के स्त्री यात्रा
वृत्तान्तों में पुस्तक रूप में प्रकाशित श्रीमती विमला कपूर के यात्रावृत्त
‘अनजाने देशों में’ में इंग्लैंड, स्विट्जरलैंड, इटली, पोलैंड, चेकोस्लोवाकिया
की यात्रा का चित्रण किया गया है । लक्ष्मीबाई चूड़ावत के यात्रावृत्त ‘हिन्दुकुश
के पार’ में अफ्रोएशियाई लेखक संघ द्वारा आयोजित सम्मेलन में भाग लेने के लिए रूस
की यात्रा का चित्रण किया गया है । पद्मा सुधि के ‘अलकनंदा के साथ-साथ’
यात्रा-वृतांत में बदरीनाथ की यात्रा तथा अमृता प्रीतम के यात्रावृत्त ‘इक्कीस
पत्तियों का गुलाब’ में बुल्गारिया, सोवियत रूस, युगोस्लाविया, हंगरी, रोमानिया
व जर्मनी का सफरनामा है । इंदु जैन के यात्रावृत्त ‘पत्तों की तरह चुप’ में जापान
में टोक्यो प्रवास के अनुभव के साथ-साथ हिरोशिमा और नागासाकी की यात्रा के क्रम
में वहाँ के अणुबम की विभीषिका से त्रस्त स्थानों के वर्तमान स्वरूप को प्रस्तुत
किया गया है । पद्मा सचदेव का यात्रा वृतांत ‘मैं कहती हूँ ऑखिन देखी’ 12 अध्यायों
में विभाजित है । इसमें माता वैष्णो देवी-जम्मू से श्रीनगर, असम,
गुवाहाटी, ब्रह्मपुत्र, केरल,
इंग्लैंड, सोवियत यूनियन, अमरीका, हाँग-काँग, बैंकॉक,
लंदन, कजाकिस्तान, तुर्किस्तान
व यूरोप के विभिन्न यात्रा वर्णनों में प्रकृति के प्रति प्रेम तथा विभिन्न देशों
की संस्कृति व समाज का चित्रण मिलता है । इस प्रकार देखा जाए तो स्त्री यात्रा
साहित्य की एक लंबी परंपरा रही है, लेकिन इस आलेख में
विदेश-यात्रा से संबंधित कुछ प्रमुख स्त्री यात्रा साहित्य पर ही ध्यान केन्द्रित
किया जाएगा ।
आज
स्त्री देश में ही नहीं विदेशों में भी स्वछंद रूप से भ्रमण कर रही है । वह अपनी
यात्रा के अनुभवों को लिपिबद्ध भी कर रही है । अतः हिन्दी यात्रा साहित्य में
महिलाओं की विदेश यात्रा से संबंधित अनेक यात्रा वृतांत देखने को मिल रहे हैं
। इन्हीं विदेश यात्राओं को ध्यान में
रखकर इस आलेख में कुछ प्रमुख यात्रा वृत्तांतों को अध्ययन का आधार बनाया जायेगा ।
इनमें से प्रमुख इस प्रकार हैं – नासिर शर्मा का ‘जहाँ फव्वारे लहू रोते हैं’,
मृदुला गर्ग का ‘कुछ अटके कुछ भटके’, ऊर्मिला
जैन का ‘देश-देश में गाँव-गाँव में’ डॉ. सुमित्रा शर्मा का ‘संस्कृति
प्रवाह-दर-प्रवाह’ शिवानी का ‘यात्रिक’, रमणिका गुप्ता का
‘लहरों की लय’, गरिमा श्रीवास्तव का ‘देह ही देश’, मधु कांकरिया का ‘बादलों में बारूद’, अनुराधा
बेनीवाल का ‘आजादी मेंरा ब्रांड’ आदि ।
नासिरा शर्मा
का ‘जहाँ फव्वारे लहू रोते हैं’ 2003 में वाणी प्रकाशन से प्रकाशित 18
खंडों में विभक्त (18 वे खंड में साक्षात्कारों का संकलन) व मुख्यत: ईरान की
यात्राओं पर आधारित यात्रा वृतांत है । ईरान के अलावा भी इसमें जापान,
पेरिस, लंदन,
अफगानिस्तान, पाकिस्तान, ईराक, फिलिस्तीन, कुर्दिस्तान आदि की यात्राओं के अनुभव,
जहाँ सुरक्षा और शांति सपने की तरह हैं, को
विस्तार से वर्णित किया गया है । वहाँ के राजनैतिक, सामाजिक,
सांस्कृतिक, आर्थिक सभी तरह के परिवेश का बहुत
ही गहराई से चित्रण इसमें किया गया है । इन यात्राओं को लिखना लेखिका के लिए
अंत्यत कष्टदायक रहा है । ईरानी क्रांति के आतंक, अत्याचार व
अमानवीय घटनाओं को अभिव्यक्त करना इतना आसान कार्य नहीं था, क्योंकि
एक बार देखी गई भयावह घटनाओं को लिखते समय उनसे फिर से गुजरना अत्यंत कष्टदायक है
। कई बार तो लेखिका लिखते समय उत्तेजना से भर उठती है । वह लिखती है कि “बदन में गर्म
खून-गर्म खून दौड़ने लगता, आँखे तन-सी जातीं, नसें चिटखने-सी लगतीं और मैं कई-कई दिन तक मेज की तरफ जाने का हौसला नहीं
बना पाती थी ।”[3]
इसमें कपोल कल्पना को आधार न बनाकर यथार्थ रूप में परिस्थितियों को प्रस्तुत किया
गया है । लेखिका ने जिन-जिन देशों की
यात्राएं की हैं वहाँ के हालातों को जनता के बीच रहकर-देखा और जाना परखा है । इस
पुस्तक में उपनिवेशी ताकतों का विरोध परिलक्षित किया जा सकता है । इसमें विशेष रूप
से ईरान-ईराक क्रांतियों की यथार्थ स्थिति को बहुत ही निकट से देखने का अवसर मिलता
है ।
ईरान
व शाह व्यवस्था के विरोध में कलम उठाने के कारण लेखिका को कई तरह के विरोधों का
सामना करना पड़ा । ईरान पर लिखने व इन रिपोर्ताजों के कारण ही पी-एचडी. में दाखिला
नहीं हो सका और आखिरकार ईरान पर अपने इसी दृष्टिकोण के कारण 1983 ई. में जामिया
मिल्लिया से इस्तीफा देकर, अध्यापन कार्य छोड़कर
कलम चलाना शुरू कर दिया क्योंकि हर जगह लड़ाई करने से कलम चलाना ही अच्छा है । कलम
से भी लड़ाई लड़ी ही जा सकती है । इन देशों की ओर रुख करने व शाह व्यवस्था के
विरुद्ध लिखने के बारे में लेखिका कहती है कि “अकसर मैं सोचती हूँ कि इस तरह के
लेखन के चलते मैं पिछले तीस वर्ष से कितने तनाव-दबाव और व्यथा में रही हूँ मेरे
लेखन ने इन देशों का रुख कैसे किया मैं नहीं जानती मगर कारण जरूर कुछ होगा शायद
सिर्फ इतना सा कि मैं अपने समय के प्रति सचेत हूँ ।”[4]
इस
प्रकार इन यात्राओं को करना और लिखना लेखिका के लिए बहुत ही मुश्किल कार्य रहा है
जिनका मुख्य उद्देश्य अपने समय के प्रति सचेत रहते हुए असुरक्षा और अशान्ति के दौर
से गुजर रहे इन देशों के दु:ख-दर्द को सभी के सामने लाना है । इन देशों की 1976 से
2003 के बीच की गई यात्राओं का देखा, भोगा
वृतांत इस पुस्तक में प्रस्तुत किया गया है । ईरान, पेरिस व
बगदाद, अफगानिस्तान, पाकिस्तान,
ईराक, फिलिस्तीन, कुर्दिस्तान
में लेखिका ने एक पत्रकार व बुद्धिजीवी
वर्ग की हैसियत से जहाँ पर भी जो कुछ देखा उसी रूप में उसका चित्रण किया है ।
इसीलिए लेखिका इन्हें यात्रावृत्त का नाम न देकर रिपोर्ताज कहती है । इसके संबंध
में रामचन्द्र तिवारी लिखते हैं कि “कई देशों के बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों और पत्रकारों के वे निकट संपर्क में रही हैं जो कुछ उन्होंने
बयान किया है वह उनका एक पत्रकार-बुद्धिजीवी की हैसियत से अनुभव किया हुआ सच है ।
इन बयानों को उन्होंने रिपोर्ताज कहा है । रिपोर्ताज वे ही असरदार होते हैं जिनमें
आँखों देखी सच्चाई पेश की जाती है । नासिरा के इन रिपोर्ताजों में तो उनका देखा हुआ
ही नहीं भुगता हुआ सच भी है । ऐसा सच भी है जिसे पढ़कर पीड़ा और क्षोभ की अनुभूति एक
साथ होती है ।”[5]
लेखिका फासिस्ट व्यवस्था के विरुद्ध है जिसकी इस यात्रावृत्त में समय-समय पर हर
तरफ से आवाज उठाई गयी है । आभ्यंतर युद्ध, आम लोगों की आवाज
की लड़ाई, ईरान में खुमैनी का शासन काल, उस समय की रूढ़िवादिता, सद्दाम हुसैन का ईरान में
शासन व ईराक का आधुनिकता की ओर बढ़ना जैसे सभी पक्षों का चित्रण इसमें किया गया है
।
हिन्दी
की सुपरिचित कथाकार मृदुला गर्ग का यात्रावृत्त ‘कुछ अटके कुछ भटके’
2006 में पेंगुईन प्रकाशन से प्रकाशित देश विदेश की यात्राओं का वृतांत है । इसमें
मालदीव,
सूरीनाम, जापान, सिक्किम, केरल, असम, तमिलनाडु व दिल्ली
की यात्राओं की अभिव्यक्ति की गई है । तेरह अध्यायों में विभक्त इस पुस्तक में
पहले अध्याय ‘भटकते गुजरा जमाना’ में यात्रा के संबंध में अपने विचार व्यक्त करते
हुए लेखिका कहती है कि यात्राएं प्रयोजनमूलक और प्रयोजनयुक्त दो प्रकार की होती
हैं । इसी तरह देशी, विदेशी और सैलानियों(देवेन्द्र
सत्यार्थी, फाह्यान, ह्वेनसांग,
वास्कोडिगामा) की टिप्पणियों को उठाते हुए हल्के-हल्के में कई गंभीर
बातों पर चर्चा की गई है । लेखिका कहती है कि “असल चीज, सफर
है, मंजिल नहीं । भटकना है, पहुँचना
नहीं ।”[6] इसी
भटकाव की स्थितियों का चित्रण इसमें किया गया है यद्यपि सभी यात्राएं मुख्यत:
पूर्व निर्धारित कार्यक्रमों के अनुसार की गई हैं जिनमें व्याख्यान और सेमिनार
उनकी मंजिलें रहे हैं । दो वृत्तांत ‘सपने से दीदार तक’ और ‘दीदार से सपने तक’ में
मालदीव यात्रा व ‘सांप कब सोता है’ में सूरीनाम की यात्रा का वर्णन किया गया है ।
विश्व हिन्दी सम्मेलन में शामिल होने के लिए प्रतिनिधि मण्डल के साथ सूरीनाम जाना
होता है । वहाँ से लौटते वक्त एम्स्टर्डम के संग्रहालय में जाकर वहाँ वॉन के सन
फ्लॉवर के चित्रों को देखना व सूरीनाम के सबाना पार्क व वहाँ के घने जंगलों की सैर
रोमांच पैदा करते हैं । ‘दिल से गए दिल्ली’, ‘घर बैठे सैर’, ‘तिलस्मी
बुनराकु’ लेखों में ललित निबंधात्मक शैली में दिवास्वप्नी यात्रा-कथा को प्रस्तुत
किया गया है । ‘हिरोशिमा में क्रौंच और कनेर’ लेख में जापान की यात्रा व वहाँ की
अणुबम विभीषिका को प्रस्तुत किया गया है।
इस
प्रकार यह यात्रा वृतांत भाव, विचार, अभिव्यक्ति-शैली आदि सभी स्तरों पर अपने भिन्न स्वरूप के कारण विशिष्ट
महत्त्व रखता है । इसमें लेखिका कथाकार, टिप्पणीकार, व्यंग्यकार सभी रूपों में दिखाई देती है । कलात्मकता, प्रकृति प्रेम, साहित्यात्मकता के साथ-साथ गंभीरता
से उठाए गए कुछ सवाल भी इसमें प्रस्तुत होते हैं ।
रमणिका गुप्ता
का यात्रा वृतांत ‘लहरों की लय’ 2007 में प्रकाशित विदेश यात्रा से संबंधित
वृतांत है जिसमें 1975 से 1994 तक के 30 वर्षों के दौरान किए गए यात्रानुभवों को
अभिव्यक्त किया गया है । इसमें मैक्सिको, अमेरिका,
कनाडा, बर्लिन, बेल्जियम,
फ्रांस, स्विट्जरलैंड, इटली, युगोस्लाविया, जर्मनी, ब्रिटेन,
नार्वे, स्वीडन, फ्रैंकफर्ट,
थाईलैंड, हाँग-कांग,
फिलीपींस, क्यूबा व रूस की यात्राओं को अभिव्यक्त किया है ।
इसमें उन्होंने मुख्य रूप से मजदूर जीवन की विपन्नताओं, आदिवासी
जीवन व स्त्रियों के जीवन को बहुत निकटता से देखा है । इनकी यात्राएं बाहर के
साथ-साथ अंदरूनी भी हैं । इसमें लेखिका की दोहरी भूमिका दिखाई देती है । एक तरफ एक
सौन्दर्यप्रेमी की तरह उसकी दृष्टि को एल्पस पर्वत का अद्भुत सौन्दर्य, नियाग्रा जल प्रपात, नार्वे के नाविकों के डोंगियों
में जोखिम भरी समुद्री यात्राएं, उत्तरी व दक्षिणी ध्रुवों
की साहसिक यात्राएं अभिभूत करती हैं तो दूसरी तरफ एक सामाजिक-राजनैतिक कार्यकर्ता
के रूप में उसे खदानों में काम करते व छोटे-छोटे घरों में ठूँस-ठूँस कर भरे
मजदूरों की दुर्दशा को देखकर दुख होता है । लेखिका जहाँ-जहाँ जाती है वहाँ के
संगीत, नृत्य, इतिहास, साहित्य, कला, जीवन आदि का पता
लगाने की कोशिश के साथ-साथ मैक्सिको, नार्वे-स्वीडन के
आदिवासियों की जीवनशैलियों में भारत की सभ्यता के भी दर्शन करती रहती है ।
उर्मिला जैन
का ‘देश-देश, गाँव-गाँव’
2007 में दिल्ली से प्रकाशित पश्चिमी व अफ्रीकी देशों की यात्रा का वृतांत है
जिसमें 32 यात्रा लेखों में ब्रिटेन, फ्रांस, लैटिन अमेरिका व विश्व के अन्य देशों के भूगोल,
इतिहास, समाज व संस्कृति को प्रस्तुत किया गया है । इंग्लैंड
के यात्रा लेखों से शुरु हुई इस पुस्तक में पश्चिमी देशों की स्त्रियों की दशा पर
भी विचार किया गया है । इंग्लैंड आदि पश्चिमी देशों में पहले से ही स्वछंदता,
वैवाहिक जीवन में तलाक, पुनर्विवाह, समान-वेतन आदि जैसे अनेक अधिकारों के बावजूद स्त्रियों को जिस घुटन का
एहसास होता है उसे इसमें अभिव्यक्त किया है । इसमें आयरलैंड, नोबेल पुरस्कारों का शहर स्टॉकहोम, सांता क्लॉस का
गाँव, रियोडिजेनेरो, पैंटानोल में ओम
आदि स्थानों के यात्रावृत्त काफी रोचक हैं । इस पुस्तक में लेखिका विश्व के
विभिन्न देशों की संस्कृतियों को अभिव्यक्त करने में सफल हुई है ।
कहानीकार
व उपन्यासकार के रूप में ख्याति प्राप्त शिवानी का ‘यात्रिक’ 2007
में प्रकाशित एक महत्त्वपूर्ण यात्रा वृत्तांत है । जिसमें ‘चरैवेती’ और ‘यात्रिक’
शीर्षक रचनाओं में क्रमश: मार्क्सवादी रूस व पश्चिमी विचारधारा के केंद्र इंग्लैंड
को पार्श्वभूमि में रखा गया है । मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित रूस की यात्रा
लेखन में रूस के संग्राहालय, लेनिन, चेखव म्यूजियम, गोर्की की कलम, पांडुलिपि आदि सभी का चित्रण किया गया है ।
सुमित्रा शर्मा
के ‘संस्कृति प्रवाह-दर-प्रवाह’ 2014 में समीक्षा प्रकाशन से प्रकाशित हुई
जिसमें मोरिशस, अमरनाथ, नेपाल,
बाली, जकार्ता, सिंगापुर,
हरिद्वार, ऋषिकेश व बैंकॉक में की गयी
देश-विदेश की यात्राओं का चित्रण किया गया है । इन यात्राओं में सूक्ष्म अनुभवों
ने शब्दों के माध्यम से मनोरम आकार पाया है । इनकी यात्राओं के संबंध में
नर्मदाप्रसाद उपाध्याय लिखते हैं कि “सुमित्राजी के शब्द सिर्फ बयान नहीं है वे रागात्मक
अनुभूतियों और तलस्पर्शी साक्षात से भरपूर हैं इसीलिए उनमें ऐसी व्यंजना समाई है
जो मन को दूर तक विचरण करा लाती हैं । ये यात्रा संस्मरण ऐसे मृगछौनों की तरह हैं
जो स्वछंद रूप से पूरे प्रांतर में आकुल भाव और जिज्ञासा भरी आँखों से कुचालें
भरते हैं और फिर उन्हीं पथों से नहीं लौटते जिस पथ से उन्होंने यात्रा की शुरुआत
की थी ।”[7]
अनुराधा बेनीवाल
की यूरोप घुमक्कड़ी के संस्मरणों के आख्यान ‘यायावरी आवारगी’ की पुस्तक श्रृ्ंख्ला
में ‘आजादी मेरा ब्रांड’ पहली किताब है, जिसका
प्रकाशन राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली से जनवरी 2016 में हुआ ।
यह पुस्तक स्त्री की स्वतंत्रता की आवाज को बुलंद करती है । मुख्यत: इस कृति का
वास्तविक ब्रांड आजादी ही है । इसी आजादी की तलाश में यूरोप के 13 देशों में एक
लड़की के द्वारा की गयी घुमक्कड़ी की कहानी इसमें है । इसमें अकेले, बिना किसी मकसद के, बेपरवाह, बेफिक्र
होकर की गई यात्राओं का वृत्तान्त है। एक अकेली बेकाम, बेफिक्र,
बे टेम घूमती-फिरती लड़की में अलग ही ताकत होती है, साहस होता है । ऐसा साहस जिसे बाहर निकलने का मौका ही नहीं दिया गया होता
। इसी साहस के दम पर की गई बेमकसद यात्राओं की अनूठी दास्तान है ‘आजादी मेरा
ब्रांड’ । इसमें यूरोप के तेरह शहर लन्दन, पेरिस, लील, ब्रसल्स, कॉकसाईड,
एम्स्टर्डम, बर्लिन,
प्राग, ब्रातिस्लावा, बुडापेस्ट,
म्युनिक, इंस्ब्रुक, बर्न
की एकाकी यात्राओं के वृत्तांत है । इन एकाकी यात्राओं में कहीं पर भी ऊब महसूस
नहीं होती है । ज्ञान के बोझ से कहीं पर भी भारीपन नहीं लगता है । बल्कि इसमें तो
पाठक भी साथ-साथ यात्रा करने लगता है । इस यात्रा में यह अजनबी, आवारा लड़की कब आपकी दोस्त बन जाती है पता ही नहीं चलता । वह आपको अन्दर और
बाहर दोनों ही तरह की यात्राओं से रूबरू कराती चलती है । इसमें जितनी यात्राएँ
बाहर की दुनिया की हैं, उतनी ही अन्दर की दुनिया की भी हैं,
और वह इन्हीं दोनों दुनियाओं को जोड़ती हुई चलती है ।
यह
पुस्तक भारत की स्त्रियों के लिए स्वतंत्रता का एक घोषणा पत्र है जिसमें वह
लड़कियों से धर्म, संस्कार, मर्यादा की बेड़ियों को तोड़कर, सबकुछ भूलकर घूमने की
हिमायत करती है । इसमें लेखिका का व्यक्तित्व खुलकर प्रस्तुत हुआ है । वह देह की
मुक्ति से लेकर हर तरह के सामाजिक बन्धनों को तोड़ती हुई अपनी इच्छाओं, आकांक्षाओं, विचारों सबकुछ को उघाड़कर प्रस्तुत कर देती है, कहीं भी लज्जा व शर्म के मारे कुछ भी छुपाती नहीं । वह अपनी कमजोरियों और
ताकत को साहस और आत्मविश्वास के साथ प्रस्तुत करती है, अतः
उसकी ईमानदारी पाठक को हर जगह प्रभावित करती है । लेखिका कहती है मुझे चल सकने की
आजादी चाहिए - टेम-बेटेम, बिंदास, बेफिक्र
होकर, हँसते-रोते, सिर उठाकर सड़क पर निकल
पड़ने की आजादी । कुछ अच्छे-बुरे, अनहोनी की चिंता किए बगैर
अकेले ही चल पड़ने की आजादी की तलाश में अनजाने शहरों की भूल-भूलैय्या में बेवजह,
बेफिक्र, अनजान, अकेले-फिरते
अपरिचितों से रास्ता पूछते, अजनबी लोगों के घरों में ठिकाना
बनाते हुए एक महीने में की गई यह यात्रा देशकाल के कई नवीन आयामों को प्रस्तुत
करती हुई चलती है ।
‘देह ही देश’
गरिमा श्रीवास्तव ‘देह ही देश’ 2017 में राजपाल एंड संज से प्रकाशित गरिमा
श्रीवास्तव की क्रोएशिया प्रवास के दौरान लिखी गई यात्रा डायरी है । यह यात्रा और
डायरी दोनों का सम्मिलित रूप है जो 2009-2010 के दो अकादमिक सत्रों में भारतीय
सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद की ओर से जाग्रेब विश्वविद्यालय के सुदूर पूर्वी अध्ययन
विभाग में प्रतिनियुक्ति के दौरान लिखी गई थी । यह किताब सर्ब-क्रोआती बोस्नियाई
संघर्ष के दौरान स्त्रियों द्वारा भोगे गए यथार्थ का दस्तावेज है जिसमें 90 के दशक
में पूर्वी यूरोप के सयुंक्त युगोस्लाविया में हुए युद्ध और विखंडन से विस्थापित
हुए लोगों को खासकर स्त्री की शारीरिक एवं मानसिक शोषण की स्थितियों का चित्रण
किया गया है । इसमें सामूहिक बलात्कार की शिकार बनकर मानसिक संतुलन खो बैठी स्त्रियों
की सच्चाई, अपने नवजात की जान बचाने के लिए
निर्वसन होने वाली स्त्री की सच्चाई या एरिजोना मार्केट में देह-व्यापार में डूबती
उतरती स्त्रियों के सच या उनके अनकहे आख्यानों को सुनाने की कोशिश की गई है। इस यात्रा डायरी में बड़ी ही सूक्ष्मता और
व्यापकता के साथ युद्ध, विस्थापन, पुनर्वास
व सेक्स जैसे हर तरह के परिदृश्यों को परत-दर-परत उजागर किया गया है । जब-जब इस
डायरी को पढ़ने की कोशिश करते हैं मस्तिष्क संवेदना शून्य हो जाता है । ये अन्दर से
बाहर और देह से देश तक की ऐसी यात्राएँ है, जहाँ हत्या है,
क्रूरता है, बलात्कार से पीड़ित स्त्रियाँ है,
सिहरन है, चीखते-चिल्लाते बच्चे हैं । यह
रक्तरंजित युद्ध के इतिहास का सच्चा बयान है । इस इतिहास को देखने पर पता चलता है
कि इस सर्ब क्रोआती बोस्नियाई संघर्ष की भूमिका 1939-1945 के बीच द्वितीय
विश्वयुद्ध के दौरान ही रच दी गई थी । जब संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत रूस के
बीच शीतयुद्ध चल रहा था और ये क्रमशः पूँजीवादी और साम्यवादी देश के दो खेमों में
बंट गये थे । ऐसे में दोनों में आपसी टकराव का खतरा हमेशा बना रहा । बर्लिन संकट, कोरिया युद्ध और सोवियत रूस द्वारा आण्विक परिक्षण, हिन्द-चीन संकट, क्यूबा मिसाईल संकट ये सब इसी शीतयुद्ध
के परिणाम थे और इसी का परिणाम था सर्बियाई-क्रोएशियाई युद्ध जिसके परिणामों का
चित्रण इस पुस्तक में किया गया है ।
जाग्रेब
और क्रोएशिया का इतिहास, युद्ध का इतिहास ।
जिसमें है खून से सनी औरतें और बच्चे, क्षत-विक्षत जिस्म,
गर्भवती होती स्त्रियाँ, जानवरों की तरह खरीदी
और बेची जा रही औरतें, जंगलों की तरफ भागते पुरुष व भेड़ियों
की तरह लपकते सर्बियाई सैनिक । ऐसे-ऐसे चित्रण जिनको पढ़कर मस्तिष्क सुन्न हो जाता
है । लगता है जैसे सब कुछ अपनी ही आँखों के आगे घट रहा है और हम प्रत्यक्षदर्शी
होकर मात्र देख रहे हैं । लगता है बस अब और नहीं । बहुत हो गया । इससे ज्यादा नहीं
देखा सुना जा सकता लेकिन ये सोचने मात्र से यह क्रम रूकता थोड़ी ना है । सेर्गेई,
याद्राका, एडिना, स्त्रोकोविच,
फिक्रेत, बोल्कोवेच, दुष्का,
नीसा, अजर ब्लाजेविक, हसीबा,
मेलिसा जैसी तमाम औरतें...जो पात्र अलग-अलग है लेकिन दुःख, दर्द व पीड़ाएँ सभी की एक है । जो एक-एक करके अपनी कहानियाँ सुनाती जाती है,
हर औरत के साथ रूह कंपा देने वाली कहानियाँ जुड़ी हुई है । जिसमें
पाठक की अनुपस्थिति होकर भी हर जगह उपस्थिति लगती है । सर्बिया ने युद्ध में
बोस्निया, हर्जेगोविना, क्रोएशिया के
खिलाफ नागरिक और सैन्य कैदियों के 480 कैम्प बनाए थे । इन्हीं कैम्पों में
स्त्रियों पर अमानुषिक अत्याचार किये गये थे । ये सभी सर्बियाई कैम्प रैप शिविरों
में बदल गये थे । इनमें स्त्रियों को शारीरिक और मानसिक यातनाएँ देकर, बलात्कार करके योनियों तक सीमित करके रख दिया गया था । इतिहास के उन
विद्रूप पन्नों को एक-एक करके इस किताब में खोलकर रखा गया है।
युद्ध
के दौरान सैनिकों का जितना क्रूरतम और वीभत्स चेहरा हो सकता है,
उसे ‘देह ही देश’ में देखा जा सकता है । तरसेम गुजराल इस यात्रा डायरी के सम्बन्ध में
लिखती हैं कि “रक्तरंजित इस डायरी में जख्मी चिड़ियों के टूटे पंख हैं, तपती रेत पर तड़पती सुनहरी जिल्द वाली मछलियाँ हैं, कांच
के मर्तबान में कैद तितलियाँ हैं ।
युगास्लाविया के विखंडन का इतना सच्चा बयान हिंदी में यह पहला है ।”[8]
उपर्युक्त
यात्रा वृतांतों में देखा जा सकता है कि आज स्त्रियाँ घर व देश की सीमाओं को
लांघकर स्वतंत्र रूप से यात्राएं करने लगी है । इन्हीं यात्राओं में वे अपनी
व्यापक दृष्टि को कभी दार्शनिक रूप में प्रस्तुत करती हैं तो कभी संवेदनात्मक
पहलुओं को सामने लाकर मानवता की सच्ची तस्वीर दिखाती हैं । इस प्रकार आज का स्त्री
यात्रा साहित्य अपनी रसमयता, पैनी दृष्टि और
प्रांजलता के लिए प्रत्येक सहृदय द्वारा पठनीय, माननीय,
सरस, सम्मोहक, सुखद और
सर्वथा सराहनीय है ।
संदर्भ
ग्रंथ :-
1. सुरेन्द्र
माथुर,
‘हिन्दी यात्रा साहित्य का आलोचनात्मक
अध्ययन’(1962), साहित्य प्रकाशन, दिल्ली,
पृ. 86
2. सुरेन्द्र
माथुर,
‘हिन्दी यात्रा साहित्य का आलोचनात्मक
अध्ययन’(1962), साहित्य प्रकाशन, दिल्ली,
पृ. 92
3. नासिरा
शर्मा,
‘जहाँ फव्वारे लहू रोते हैं’(2003),
वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. भूमिका
4. नासिरा
शर्मा,
‘जहाँ फव्वारे लहू रोते हैं’(2003),
वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. भूमिका
5. रामचन्द्र
तिवारी,’ हिन्दी का गद्य साहित्य’(2014), विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, पृ. 414
6. मृदुला
गर्ग,
‘कुछ अटके कुछ भटके’(2006), पेंगुइन बुक्स, इंडिया, पृ.
13
7. डॉ.
सुमित्रा शर्मा ‘संस्कृति प्रवाह-दर-प्रवाह’(2014), समीक्षा पब्लिकेशन, दिल्ली,
पृ. 11
8. गरिमा
श्रीवास्तव, ‘देह ही
देश’(2017), राजपाल एंड संज, दिल्ली,
फ्लैप पेज
शोधार्थी,
हिंदी विभाग
हैदराबाद विश्वविद्यालय,
हैदराबाद
मो. 9461492924
Thursday, October 8, 2020
स्वाति
चौधरी
हिंदी सिनेमा और भाषा के बदलते संदर्भ
“अगर आप किसी से ऐसी भाषा में बात करते हैं, जिसे वह समझता है, तो वह उसके
दिमाग तक जाती है । यदि आप उससे उनकी ही भाषा में बात करते हैं तो वह उसके ह्रदय
तक जाती है ।”[1] -नेल्सन मंडेला
भारत एक ऐसा देश है जहाँ बहुजातीय, बहुभाषीय, बहुनस्लीय और बहुधर्मीय मानव-समुदाय प्रेम और सौहार्द से
मिलजुल कर रहते हुए एक गौरवशाली राष्ट्र का निर्माण करते हैं । जिसमें विविधताओं
के होने के बावजूद भी हिंदी भाषा सम्पूर्ण क्षेत्रों में समझी जाती है । यह उत्तर
में कश्मीर से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक व पूर्व में आसाम से लेकर पश्चिम
में गुजरात बोली और समझी जाती है । आज हिंदी ने भारत की सीमाओं को लांघकर विश्व के
हर कोने में अपनी पहचान बना ली है । विश्व के करीब 192 देशों में हिंदी आज न केवल
पढाई जा रही है बल्कि बोली भी जा रही है । इसी हिंदी भाषा को विश्वस्तरीय पहचान
दिलाने में सिनेमा की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है । स्वतन्त्रता के पश्चात् भारतीय
संविधान में 14 भाषाओं को स्वीकृति प्रदान की गई थी । तब से लेकर आज तक भारत सरकार
हिंदी सिनेमा में प्रत्येक भाषा पर फिल्म बनाने के लिए सुख-सुविधा प्रदान कर भाषा
को प्रोत्साहित कर रही है क्योंकि प्रत्येक कला विधा की अपनी एक भाषा होती है और
अपना एक मुहावरा होता है । जिस प्रकार से चित्र की भाषा रंग और रेखाएँ और नृत्य की
भाषा पदचाप और मुद्राएँ हैं । उसी प्रकार सिनेमा की भी अपनी एक भाषा है । जिसके
माध्यम से ही यह समाज के लोगों के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है । प्रारंभिक दौर से
लेकर आज तक इसके विकास में हिंदी भाषा का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है । सिनेमा में
शुरू से अंत तक एक कहानी को प्रस्तुत किया जाता है । यह कहानी पात्रों के संवादों
द्वारा व्यक्त की जाती है और इन संवादों को ही फिल्म की भाषा कहा जाता है । इन्हीं
संवादों की भाषा के माध्यम से भारत की गौरवशाली परम्परा, उसका स्वर्णिम इतिहास और भारतीय संस्कृति को विश्व के कोने-कोने में हिंदी
के माध्यम से प्रचारित-प्रसारित करने में हिंदी सिनेमा का महत्त्वपूर्ण योगदान है
। सिनेमा एक ऐसा माध्यम है जो हमारे समक्ष कई संस्कृतियों और कलाओं को प्रस्तुत
करता है । इसमें आरंभिक दौर से लेकर अब तक कई परिवर्तन हुए है । जिससे समय के
साथ-साथ इस हिंदी सिनेमा की तस्वीर भी बदलती रही है ।
आज सिनेमा को लेकर नवीन प्रयोग हो रहे हैं । हिंदी
सिनेमा में संवाद लेखन और पटकथा तक सभी में क्षेत्रीय भाषाओं का प्रभाव देखने को
मिलता है । इस प्रकार के प्रयोग सिनेमा में प्रारम्भ से ही होते आ रहे हैं परन्तु
वर्तमान समय में ये प्रयोग बढ़ते जा रहे हैं । हिंदी सिनेमा भाषा प्रचार की
संस्कृति और जातीय प्रश्नों के साथ निरंतर गतिमान रहा है । उसकी यह प्रकृति बहुत
ही सहज, रोचक, बोधगम्य, संप्रेषणीय और ग्राह्य रही है । हम जब हिंदी सिनेमा का मूल्याङ्कन करते
हैं तो पाते हैं कि भाषा का प्रचार-प्रसार, साहित्यिक कृतियों का फ़िल्मी रूपांतरण, हिंदी गीतों की लोकप्रियता हिंदी की अन्य उपभाषाएँ और अन्य हिंदी बोलियों
का सिनेमा और सांस्कृतिक एवं जातीय प्रश्नों को उभारने में भारतीय सिनेमा का
महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है । हिंदी भाषा की सरंचनात्मकता, शैली, कथन, बिम्ब, प्रतीक, दृश्य विधान आदि मानकों को हिंदी सिनेमा ने गढ़ा है । आज हिंदी
सिनेमा भारतीय समाज, हिंदी भाषा, साहित्य और संस्कृति
का लोकदूत बनकर चारों ओर पहुँचने की दिशा में अग्रसर हुआ है ।
भाषा के आधार पर अगर देखा जाये तो हिंदी सिनेमा में या
यूँ कहे भारतीय सिनेमा में हिंदी भाषा के आलावा अन्य भारतीय भाषाओं में भी सिनेमा
तैयार किया गया लेकिन हिंदी की लोकप्रियता का ग्राफ इन सभी भाषाओं में सबसे ऊपरी
पायदान पर रहा है जिसकी प्रसिद्धि विश्व के हर कोने में फैलती चली गई । 1934 में
जब हिंदी सिनेमा का सफ़र आरम्भ हुआ तो हिंदी भाषा अपने असली रूप में प्रयोग में
लायी जा रही थी परन्तु वर्तमान समय में गैंग ऑफ़ वासेपुर, पानसिंह तोमर जैसी फिल्मों ने हिंदी सिनेमा में प्राचीन परम्परा को
परिवर्तित किया और फिल्मों में हिंदी भाषा के साथ-साथ क्षेत्रीय भाषाओं का भी
प्रयोग होने लगा । आज सिनेमा में भारत के विभिन्न राज्यों की भाषाओं की खुशबू आती
है । आज हिंदी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा ही नहीं है अपितु लोगों के जीवन
सरोकारों, स्पन्दन, भावात्मक
संचार, आर्थिक स्थिति, वैचारिक
बनावट आदि को भी दर्शाती है । भारतीय सिनेमा के प्रारंभिक दौर में ‘राजा हरिश्चंद्र’ फिल्म में
मराठी भाषी दादा साहेब फाल्के ने सब टाईटल्स अंग्रेजी के साथ-साथ हिंदी में भी रखे
थे । जब उन्होंने पहली बार फिल्म में आवाज को शामिल किया तो उसमें हिंदी का ही
प्रयोग किया । फिल्मों में व्यावसायिक संभावनाओं को ध्यान में रखते हुए हिंदी के
विशाल दर्शक वर्ग तक पहुँचने के लिए हिंदी भाषा से बेहतर कोई दूसरा विकल्प नहीं था
। इसीलिए आर्देशिर ईरानी ने भारत की पहली सवाक फिल्म ‘आलमआरा’ 1931 में हिंदी उर्दू मिश्रित हिन्दुस्तानी आम बोलचाल की
भाषा का प्रयोग किया । 1931 में जो 27 फ़िल्में बनी थी इनमें से 22 तो हिंदी में ही
थी। आलमआरा के बाद जब बोलती फिल्मों का प्रारंभ हुआ तो बांग्ला, मराठी आदि की भाषा-संस्कृति ने ही हिंदी सिनेमा को सम्पन्न किया । इस
आरंभिक दौर को हिन्दुस्तानी सिनेमा भी कहा जाता है । हिंदी फ़िल्में प्रारंभ से ही
भारत की सामाजिक संस्कृति की उपज थी । हिंदी भाषी प्रदेशों की प्रतिभाओं तथा
विभिन्न प्रदेशों की सिनेमा समर्पित प्रतिभाओं के सम्पर्क एवं अंतर्क्रिया से
हिंदी सिनेमा का संसार जगमगा उठा । प्रारम्भिक दौर से लेकर वर्तमान समय तक सिनेमा
की भाषा ने कई रंग बदले है । शुरूआती दौर में जहाँ भाषा, साफ, लयबद्ध और सरल थी । वही आधुनिक युग की भाषा के कई रंग
हैं । पहले की भाषा रचनात्मक, लोक और
देशकाल की दृष्टि से अर्थगर्भित होती थी, श्लीलता, चारित्रिकता और भाषाई साफगोई का पूरा ध्यान उसमें रखा जाता था । गुलजार के
गीत ‘मोरा रंग लई ले’ से लेकर अभिताभ भट्टाचार्य के ‘भाग-भाग डी
के बोस’ तक भाषा प्रयोग के बदलते स्वरूप को देखा जा सकता है ।
फिल्मों में भाषा बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है । फिल्म देखकर जब आते हैं
तो सबकी जुबान पर फिल्म के डायलोग्स ही होते हैं । जब भी कोई नई फिल्म आती है तो
सभी को अभिव्यक्ति की नई भाषा मिल जाती है ।
सिनेमा भाषा के प्रचार-प्रसार का एक बहुत ही अच्छा
माध्यम है । सिनेमा में हर तरह की हिंदी के लिए जगह है । फिल्म में पात्रों की
भूमिका व परिस्थतियों को देखकर ही भाषा का प्रयोग किया जाता है । जिससे प्रारंभिक
दौर से लेकर आज तक इसका रूप निरंतर परिवर्तित होता जा रहा है । अगर देखा जाए तो
प्रारंभिक दौर की फ़िल्में अधिकतर देवी-देवताओं, पुराणों और गर्न्थों के चरित्र पर बनती थी जिनमें ज्यादातर में हिंदी भाषा
ही प्रयोग में लायी जाती थी । इसके बाद ऐतिहासिक काल वाली फिल्मों में मुग़ल काल की
प्रधानता होने के कारण उर्दू का अधिक प्रयोग किया जाने लगा । वही ग्रामीण परिवेश
की प्रधानता वाली फिल्मों में हिंदी व प्रांतीय बोलियों का ही अधिक प्रयोग किया
जाता था । जिस तरह ‘मदर इण्डिया’ में हिंदी के
साथ-साथ भोजपुरी भाषा का भी प्रयोग किया गया है व खेती छोड़कर गाँव से शहर में जाकर
रहने वाले किसान की व्यथा कथा को आधार बनाकर बिमल राय द्वारा बनायी गयी फिल्म ‘दो बीघा जमीन’ में भी हिंदी भाषा का प्रयोग किया व गानों में भोजपुरी
भाषा के शब्दों की अधिकता रही ।
70 के दशक में अगर देखा जाये तो हिंदी सिनेमा में सशक्त
और समानांतर सिनेमा का आरम्भ हुआ । जिसमें श्याम बेनेगल और गोविन्द निहलानी जैसे
फ़िल्मकारों ने सिनेमा की भाषा और हिंदी के साथ-साथ उच्चारण की स्पष्टता पर भी
ध्यान दिया । दुबे जी भी हिंदी भाषा के प्रबल समर्थक थे । जिसे उनकी जुनून, मंडी, निशांत, अंकुर, भूमिका आदि फिल्मों में देखा जा सकता है । इस दशक में समकालीन साहित्यकारों
ने भी हिंदी भाषा के लिए अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया । जिसमें तीसरी कसम, सद्गति, सारा आकाश जैसी फिल्में साहित्यिक कृतियों पर कालजयी
निर्माण के रूप में जानी जाती है । ऋषिकेश मुखर्जी ने भी सत्यकाम, अनाड़ी, अनुपमा चुपके-चुपके, खट्टा-मिठ्ठा, गोलमाल जैसी उत्कृष्ट फ़िल्में बनायीं । इस दौर में
मुस्लिम साहित्य से जुड़े हुए गीतकार साहिर लुधियानवी, शकील बदायूनी, कैफ़ी आजमी, सुनील दत्त, राजेन्द्र कुमार आदि भी अपना अधिपत्य जमा चुके थे । ये सभी उर्दू के अच्छे
जानकर थे । जिसके कारण उर्दू गीत, गजल, कव्वालियों का हिंदी सिनेमा में प्रमुख स्थान रहा । 80 के दशक में हिंदी
सिनेमा की भाषा में बम्बईया पुट आने लगा । जिससे ऐसे ही आम घिसे-पिटे शब्दों का
अधिक प्रयोग किया जाने लगा । जिसका प्रभाव गानों पर भी पड़ा ।
90 के दशक में भाषा और भी अधिक बिगड़ गयी । इस दशक में
बिगड़ी भाषा ने हिंदी सिनेमा का रूप ही विकृत कर दिया । पैसों के लिए ही सब कुछ
किया जाने लगा । जो सिनेमा पहले समाज का प्रतिबिम्ब होता था, समाज को जागृत करता था वह आज पैसा कमाने का जरिया मात्र बनकर रह गया है ।
आज अश्लील शब्दावली का अधिक प्रयोग किया जा रहा है । दो भागों में पूरी हुई अनुराग
कश्यप की फिल्म गैंग ऑफ़ वासेपुर’ भी हिंदी
सिनेमा में सिने भाषा को लेकर काफी चर्चित हुई । काशीनाथ सिंह के उपन्यास ‘कासी का अस्सी’ पर बनी फिल्म ‘मौहला अस्सी’ को भी गालियों के अधिक प्रयोग होने के कारण काफी विरोधों का सामना करना पड़ा
था । ‘तू चीज बड़ी है मस्त-मस्त’ गाने में भी लड़की को एक इस्तेमाल की जाने वाली चीज के रूप में प्रदर्शित
किया जाता है । इस तरह वर्तमान सिनेमा की शब्दावली में काफी अश्लीलता और खुलापन
देखा जा सकता है । “जिस रचनात्मक उत्कृष्टता को अदबी हल्कों में ‘महत्त्वपूर्ण’
माना जाता है, अनेक फ़िल्मी गीतकारों ने न सिर्फ उसे क्षतिग्रस्त किया है बल्कि
फूहड़ता और अश्लीलता की हद तक जाकर अपनी लेखनी और रचनाकर्म दोनों को लांछित किया है
। वस्तुतः इस प्रवृत्ति के लिए सिर्फ गीतकारों को दोष देना उचित नहीं होगा, भारत
में ‘बाजारवाद’ के प्रमोशन और ‘ग्लोबलाइजेशन’ के कारण जनरुचि में बदलाव आये हैं,
उसी के कारण फूहड़ता, अश्लीलता और विकृतियाँ समस्त कला माध्यमों पर छाती जा रही है ।”[2]
सिनेमा में अगर बोलियों के प्रयोग को देखा जाये तो कहा
जा सकता है कि हिंदी बोलियों का सिनेमा अपनी तकनीकी अपरिपक्वता तथा अपने सीमित
संसाधनों के कारण भले ही अंतराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान नहीं बना पाया हो किन्तु
इन बोलियों की शक्ति को बचाएँ रखने की सम्भावना उसने जरूर दिखाई है । जैसे जवरीमल्ल
पारख कहते हैं कि “बिमल राय हिंदी में
सिनेमा बनाते हैं, लेकिन बार-बार वे हिंदी में बंगला समाज को प्रस्तुत करते हैं,
चाहे वह ‘देवदास’ में हो या ‘परिणीता’ में । जब वे ‘यहूदी’ में बंगाली समाज के बाहर
जाते हैं तो वे हिंदी भाषी समाज की तरफ नहीं मुड़ते बल्कि हिन्दुस्तानी से दूर रोम
और मिश्र के इतिहास की तरफ मुड़ते हैं । गुजरात के महबूब खान भी अपनी महाकाव्यात्मक
फिल्म ‘मदर इण्डिया’ में गुजराती पृष्ठभूमि में किसान समस्या को उठाते हैं । इसी सच्चाई
को हम वी. शांताराम से श्याम बेनेगल तक लगातार देख सकते हैं । वे हिंदी भाषा में
तो सिनेमा बनाते हैं, लेकिन उस यथार्थ को लेकर जिसका सम्बन्ध या तो उनकी मातृभाषा
से है या फिर किसी एक भाषाई क्षेत्र से उसे जोड़ना कठिन है । ‘गंगा जमुना’ या ‘लगान’
जैसी फ़िल्में, जिनमें भोजपुरी या अवधी का प्रयोग किया गया है हिंदी भाषी क्षेत्र
की फ़िल्में नहीं कही जा सकती । स्थानीय स्पर्श देने के लिए इनमें क्रमशः भोजपुरी
और अवधी का प्रयोग किया गया है ।”[3]
हिंदी फिल्मों के विस्तार का प्रभाव क्षेत्रीय भाषाओं पर
भी पड़ा है और इसी प्रभाव के कारण हरियाणवी, पंजाबी, राजस्थानी, बुन्देली, छत्तीसगढ़ी,
भोजपुरी आदि क्षेत्रीय भाषाओं में फ़िल्में बननी शुरू हुई । हिंदी की सहायक भाषाएँ
होने के कारण अपने क्षेत्रों के अतिरिक्त अन्य हिंदी भाषी क्षेत्रों में भी ये
चर्चित हुई । भोजपुरी फ़िल्में भी पहले अपने क्षेत्रों तक ही सीमित थी लेकिन अब
महाराष्ट्र, उड़ीसा, असम, बंगाल और मध्यप्रदेश में भी काफी प्रचलित है । “हिंदी
फिल्मों पर भोजपुरी का इतना जबरदस्त प्रभाव है कि हिंदी की अधिकांश मसाला फ़िल्मों
में भोजपुरी गीत, संवाद, या पात्र रखना एक आम बात हो गई है। भोजपुरी फ़िल्में कम लागत
में अधिक लाभ देती है । यही कारण है कि स्वतन्त्रता के बाद लगभग दो सौ से ज्यादा
फ़िल्में बन चुकी है और काफी संख्या में आज भी निर्माणाधीन है इनमें कुछ चर्चित
फ़िल्में -‘सबहिं नचावत राम गोसाई’, ‘करार’, ‘नथुनियाँ’, ‘तोहार किरिया’,
‘पैजनियां’ आदि है ।”[4]
आज हिंदी सिनेमा को जरूरत है कि क्षेत्रीय भाषाओं में फ़िल्में अधिक से अधिक बने
जिससे की हिंदी भाषा का वटवृक्ष और भी ऊर्जा स्त्रोत विकसित कर सके क्योंकि इन
विभिन्न प्रकार की बोलियों को बोलने वाला सिनेमा भी अंततः हिंदी भाषा के विकास में
महत्त्वपूर्ण साबित होता है । जिससे राष्ट्रीय एकता को भी दृढता मिलती है । भाषा
में समाज और संस्कृति का प्रवाह रहता है । हिन्दुस्तानी समाज में हिंदी सिनेमा ने
विभिन्न राष्ट्रीयता, सामाजिक ढाँचा, पारिवारिक
रिश्ता, आतंकवाद, कृषि, किसान, बाजारवाद, प्रवासी जीवन आदि अनेक मुद्दों को उठाया है । हिंदी सिनेमा ने अपने कथानक, संवादों, पात्रों और भाषा की अभिव्यक्ति के आधार पर इन मुद्दों की
तरफ हमारा ध्यान आकर्षित किया है ।
हिंदी फिल्मों ने हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार के साथ
हिंदी भाषी समुदाय की चुनौतियों, चाहतों तथा
संघर्ष सपनों को भी विश्व-फलक पर पहुँचाने में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान प्रदान
किया है । हिंदी भाषा का विश्व व्यापी प्रसार इन मुद्दों को संबोधित किये बिना
अधुरा ही माना जाता है लेकिन हिंदी सिनेमा ने अपनी इस भूमिका का बखूबी निर्वहन
किया है । दुनिया की कोई भी भाषा अपने नए माहौल से अनुकूलन किये बिना अपना
अस्तित्व स्थापित नहीं कर सकती । समाज की नई हलचलों को पहचानने घटनाओं को जानने
तथा उनके अभिलेखन के लिए एक भाषा का अपना ताना-बाना बदलना ही पड़ता है। हिंदी भाषा
भी नवीन चुनौतियों के वहन के लिए नयी विधाओं और नए नए रूपों में हमारे सामने आई है
। हिंदी भाषा में सिनेमा निर्माण के साथ-साथ उर्दू को प्रमुख सहायिका भाषा के रूप
में प्रयोग किया है गीतों और संवादों के लिए दृश्यता का समावेश किया । भाषा और
बिम्ब के अंतर की पहचान बढ़ाई । नयी-नयी शैलियों जैसे मुम्बईयां भाषा को भी सिनेमा
ने मानक बनाया । नए-नए कोड, मिथकों, प्रतीकों का ईजाद किया । पटकथा-लेखन, संवाद लेखन एवं गीत-संगीत लेखन जैसी कई नयी विधाओं का सृजन किया । हिंदी
सिनेमा ने हिंदी भाषा को तकनीकी अनुकूलन के लायक बनाया । इस प्रकार से कहा जा सकता
है कि हिंदी सिनेमा ने हिंदी भाषा के नए नए रूप-रंग और साँचे-ढाँचे को गढ़ा है ।
हिंदी साहित्य, हिंदी भाषा और हिंदी की अन्य उपबोलियों भाषाओं पर हिंदी
सिनेमा का गहरा प्रभाव पड़ा है ।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि भाषा ही सिनेमा की
शक्ति है जिससे ही आज हिंदी सिनेमा अपनी उत्कृष्टता की चरम सीमा तक पहुँचा है । अपने
प्रारंभिक दौर से लेकर आज तक उसके अनेक प्रतिमान बदले है जिससे कभी स्थानीय भाषाओं
का व कभी उर्दू मिश्रित शब्दावली का प्रयोग समय और समाज की माँग के अनुसार किया
गया है । भाषा, शैली, प्रतीक, बिम्ब आदि मानदंडों पर भी अनेक प्रयोग किये गए ।
आलमआरा से लेकर पद्मावत और मुक्केबाज तक भाषा के अनेक रूप देखे जा सकते हैं ।
सिनेमा के लिए भाषा का बहुत महत्त्व है । भाषा समाज की अभिव्यक्ति का माध्यम होती
है और सिनेमा समाज के लोगों के लिए ही होता है, समय और समाज से ही सिनेमा शब्दावली
ग्रहण करता है । जिससे प्रारंभ से लेकर आजतक भाषा के कई रूप आये है । भारतीय समाज
की भाषा हिंदी होने के कारण हिंदी के विकास में सिनेमा ने अपनी महत्त्वपूर्ण
भूमिका अदा की है । भाषा पर ही फिल्म की सफलता निर्भर करती है । जिस फिल्म में
भाषा की शक्ति जितनी अधिक होती है । वह फिल्म उतनी ही सार्वभौमिक और सर्वकालिक बन
जाती है । इसी भाषा की सक्षमता के दम पर आज हिंदी सिनेमा अपना परचम लहरा रहा है और
हिंदी भाषा और भोजपुरी, राजस्थानी, हरयाणवी, मैथिली आदि उपभाषाओं में भी
सफलतापूर्वक फिल्मों का निर्माण किया जा रहा है ।
संदर्भ ग्रंथ :-
1.
नया ज्ञानोदय,
संपादक – लीलाधर मंडलोई, पृ. सं. 1, अंक-172, जून 2017
2.
संपादक मृत्युन्जय,
‘सिनेमा के सौ बर्ष’, ‘शिल्पायन’, (2011) तृतीय संस्करण, शाहदरा, दिल्ली पृ. सं. 343
3.
पारख जवरीमल्ल,
‘साझा संस्कृति, साम्प्रदायिक आतंकवाद और हिंदी सिनेमा’ (2012 ), ‘वाणी प्रकाशन’ दरियागंज,
नयी दिल्ली पृ. सं. 245-246
4.
संपादक मृत्युन्जय,
‘सिनेमा के सौ बर्ष’, ‘शिल्पायन’, (2011) तृतीय संस्करण, शाहदरा, दिल्ली पृ. सं. 396
स्वाति चौधरी
शोधार्थी, हिंदी विभाग
हैदराबाद
केन्द्रीय विश्वविद्यालय, हैदराबाद
मो. 9461492924
ईमेल- swatichoudhary212@gmail.com